आचार्य जयमल का जन्मोत्सव मनाया
चेन्नई. पुरुषवाक्कम स्थित एएमकेएम में आचार्य जयमलजी की जयंती पर आयोजित पंचदिवसीय कार्यक्रमों में प्रथम दिन जयमल जाप और उनके जीवन प्रसंगों को स्मरण श्रवण करने बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित हुए।
धर्मसभा में विराजित साध्वी कंचनकंवर के सानिध्य में साध्वी डॉ.सुप्रभा ‘सुधा’ ने कहा कि जैसी दृष्टि है, वैसी ही सृष्टि बन जाती है। एक ही व्यक्ति अलग-अलग रिश्तों से जाना जाता है उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ में अलग धर्म होता है, यथा दृष्टि तथा सृष्टि होती है। एक व्यक्ति पुष्प को देखता है और दूसरा उसके साथ लगे हुए कांटों को।
हमारी दृष्टि राग, द्वेष जैसी होगी वैसा ही हमें संसार लगता है। मनुष्य की स्वयं पर राग रहती हैऔर दूसरों पर द्वेष दृष्टि। सास के हाथ से नुकसान हो जाए तो शांत रहती है लेकिन बहू के हाथों से हो जाए तो डांटने लगती है। लेकिन महापुरुषों की दृष्टि तो आत्मदृष्टि होती है। ऐसी ही आत्मदृष्टि और भीष्मप्रतिज्ञाधारी आचार्य जयमलजी बचपन से ही संकल्प के धनी थे।
जिन्होंने सेठसुदर्शन कथा पहली बार सुनते ही वैराग्य हुआ और अपनी आत्मा को तप में तपाने लग जाते हैं। अपनी साधना से अनेकों को जीवनदान दिया, उनके चमत्कारी नाम के उच्चारण मात्र से ही संकट और बाधाएं टल जाती है, आज भी ऐसे अनेकों उदाहरण प्रत्यक्ष मिलते हैं। ऐसे महापुरुषों के गुणों को शब्दों में वर्णित करना मुश्किल है। जन-जन में उनके प्रति श्रद्धा और विश्वास है। महान आत्माओं की कथनी और करनी समान होती है, उनका आचार और विचार दोनों ही उत्कृष्ट होते हैं, ऐसे महान संत को हम भावभिनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
साध्वी डॉ.उदितप्रभा ‘उषा’ ने कहा कि भारतीय संस्कृति का मूल संत जीवन है। इससे पावन कुछ नहीं। उनका सुंदर आचार और सुंदर विचार हैं। हमारी संस्कृति के लिए संतों का स्थान वंदनीय और पूजनीय है। हमें उनके जीवन से प्रेरणा और दिशा मिलती है तथा जीवन की दशा सुधरती है। यही कारण है कि संतों का व्यापक प्रभाव और महिमा का हमारी संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। संत भगवंत ऐसे आलोक स्तम्भ होते हैं जिनकी ज्ञान प्रकाश चारों ओर उजाला फैलाता है।
पूज्य आचार्यश्री जयमलजी महाराज का जन्म ऐसे समय में हुआ जब राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर विलासिता, अत्याचार का वातावरण था। उनका जन्म जोधपुर रियासत के मेड़ता में पिता कामदार मोहनदास और माता महीमादेवी की कुक्षिसे हुआ। जन्म के समय ही पिताजी ने डाकूओं द्वारा अपहृत गायों की रक्षा की और विजयी होकर लौटे और पुत्र प्राप्ति का समाचार मिला, जिससे उनका नाम जयमल रखा गया। बचपन से ही तीव्र बुद्धि और तेजस्वीता के धनी थे।
22 वर्ष की उम्र में लाछादेवी से पाणिग्रहण हुआ और गौना होनेे कुछ समय पहले मेड़ता में संयोगवश आचार्य गुदडज़ी महाराज का प्रवचन सुनने धर्मसभा में चले जाते हैं। प्रवचन में ब्रह्मचर्य पालन और श्रेष्ठी सुदर्शन का वृत्तांत में सुनकर मन में वैराग्य हो जाता है तथा धर्मसभा में ही दीक्षा लेने का विचार कर आजीवन ब्रह्मचर्य का प्रत्यखान के लिए आचार्य से विनती करते हैं। निर्णय सुनकर सभी माता-पिता, पत्नी, स्वजन दौड़े आते हैं, उलाहना देते हैं और मना करते हैं लेकिन उनके दृढ़ निश्चय के आगे कुछ नहीं कर पाते।
उन्होंने चतुर्दशी को आचार्य के दर्शन-प्रवचन श्रवण किया, पूनम को दीक्षा की आज्ञा और एकम को दीक्षा मिल जाती है। दीक्षा मिलते ही आचार्यश्री संयम, नियम, स्वाध्याय, तप-आराधनाओं में लीन हो जाते हैं। उन्होंने एक प्रहर में ५ आगम और ३ साल में ३२ आगमों को कंठस्थ कर लिए।
धर्मसभा में बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे। जयजाप में उपस्थित लोगों में ड्रॉ निकाला गया। जयमल जयंती पर पंचदिवसीय कार्यक्रमों में 12 सितम्बर को महिलाओं के लिए भिक्षुदया कार्यक्रम, 13 को गुणगान दिवस, 14-15 को मिडब्रेन एक्टिवेशन शिविर और 15 को जयमल टास्क सहित विभिन्न धार्मिक प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाएगा।