महावीर कथा का तृतीय दिवस
चेन्नई. जैसे नौका का स्वभाव है जल पर तैरना परंतु यदि कोई उसमें बड़ा सा पत्थर डाल दे तो वह डूब जाती है। ऐसे ही आत्मा का स्वभाव है संसार सागर को तैर जाना परंतु अहंकार का पत्थर इसमें पड़ा होने से यह बीच मझधार में गोते खा रही है।
यह विचार ओजस्वी प्रवचनकार डॉ. वरुण मुनि ने जैन भवन, साहुकारपेट में गतिमान श्री महावीर कथा में उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा भगवान महावीर की चेतना जब मरीचि के रूप में जन्मी तो उसे सहज में ही प्रथम सिद्ध माता मरुदेवी के प्रपौत्र, भगवान ऋषभ देव के पौत्र और प्रथम चक्रवर्ती महाराज भरत के पुत्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। युवा होने पर उसने प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभ देव से श्रमण दीक्षा अंगीकार की। श्रमण जीवन की कठिन चर्या से उसका मन आकुल-व्याकुल रहने लगा। फलस्वरूप उसने परिव्राजक का वेष धारण कर लिया एक दिन जब भरत चक्रवर्ती प्रभु ऋषभदेव के दर्शन और प्रवचन श्रवण करने आए तब उन्होंने प्रश्न किया भगवन! इस समवशरण में ऐसी भी कोई आत्मा है पुण्यवान, जो आने वाले समय में आप जैसे तीर्थंकर पद को शोभायमान करेंगी?
तब भगवान ऋषभदेव ने फरमाया – हे देवानु प्रिय! समवसरण के बाहर जो तुम्हारा पुत्र बैठा है मरीची वह भविष्य में 24वें तीर्थंकर श्री महावीर बनेंगे। भक्ति भाव से भरत ने जब मरीची को वंदन किया तो उसके मन में अभिमान का जन्म हो गया। मेरा कुल-खानदान कितना महान है-मेरी परदादी प्रथम सिद्ध हुई इस युग की मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती और मैं भविष्य में प्रथम वासुदेव, चक्रवर्ती और अंतिम तीर्थंकर पद प्राप्त करूंगा? आहा मेरा कुल कितना श्रेष्ठ है। इस अभिमान के कारण उसने नीच गौत्र का बंध कर लिया। 12 जन्मों तक उसे पुन: जिनशासन प्राप्त न हुआ। फिर कभी वह चेतना बड़े भाई या बड़े पुत्र के रूप में पैदा न हुई यह अहंकार का परिणाम था। गुरुदेव ने कहा जहां अभिमान होता है, वहां भगवान नहीं आते। जहां गुरूर होता है, वहां हुजूर नहीं आते।