एएमकेएम में उत्तराध्ययन सूत्र का स्वाध्याय
एएमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर में चातुर्मासार्थ विराजित श्रमण संघीय युवाचार्य महेंद्र ऋषिजी ने उत्तराध्ययन सूत्र के 20वें महानिर्ग्रंथीय अध्याय की विवेचना करते हुए कहा कि यह एक तरह से सभी के मानसिक, आत्मिक स्वास्थ्य को निरंतर करने वाला एक रसायन है। यह रसायन आप अलग-अलग भावों में ले सकते हैं। जन्म की बीमारी, उपाधि- व्याधि मिटाना चाहते हैं तो उसके लिए यह रसायन है।
इसमें महानिर्ग्रन्थ की चर्या एवं मौलिक सिद्धांतों का वर्णन हुआ है। इस अध्याय का प्रारंभ अनाथी मुनि और श्रेणिक महाराजा की वार्तालाप से होता है। मुनि अनाथी का नाम मूल ग्रंथ में कहीं नहीं है। उसमें उनके भाव दिल को इससे जोड़ने वाले हैं। इस अध्याय में हम पारंपरिक रूप से जिस पंच परमेष्ठि की आराधना करते हैं उनका संक्षिप्त परिचय है।
राजा श्रेणिक महारानी के साथ उद्यान भ्रमण को आए हुए हैं। उनकी दृष्टि मुनि पर पड़ती है। अनाथी मुनि उद्यान में काउसग्ग मुद्रा में खड़े हैं। ध्यान पूरा होने पर उन्होंने पूछा आपके चेहरे पर प्रभावशाली, सौम्य भाव है, फिर आपने भोगों से दूर यह मार्ग क्यों चुना। मुनि ने जबाव दिया मैं अनाथ हूं। श्रेणिक कहते हैं इस छोटी-सी बात के लिए आप मुनि बन गए, मैं आपका नाथ बनता हूं। उन्होंने मुनि के पालन-पोषण और भोगों के लिए आमंत्रण दिया। मुनि ने कहा राजन्, आप खुद भी अनाथ हो, मेरा पालन क्या करोगे।
युवाचार्य प्रवर ने कहा कि कठोर सत्य को हजम करना हरेक के वश की बात नहीं है। मुनि की बात सुनकर श्रेणिक, जो सामर्थ्य, संपत्ति से परिपूर्ण व्यक्तित्व है, क्रुद्ध हो गए। उन्होंने कहा मगध का पूरा साम्राज्य उनके हाथ में है, फिर आप अनाथ कैसे हो सकते हो। उन्होंने कहा एक बात समझ लो, आपके पास सब कुछ है, फिर भी कुछ नहीं है। चार उपचार कहा गया हैं, रोगी, वैद्य, दवाई और रोगी की सेवा करने वाला परिचारक। यह निश्चित है कि खुद की वेदना खुद को सहन करनी पड़ती है। एक रोगी कितना विवश है कि कोई उसकी वेदना को शेयर नहीं कर सकता।
इससे यह पता चलता है कि व्यक्ति कितना अकेला है। तब श्रेणिक की जिज्ञासा पर मुनि ने अपने जीवन में घटी घटना का उल्लेख करते हुए समझाया कि एक बार मुझे गंभीर बीमारी ने घेर लिया, उस परिस्थिति में उन्होंने संकल्प लिया कि वह अगर ठीक हो जाएगा तो संयम के पथ पर आ जाऊंगा। उन्होंने छः काय जीवों की रक्षा करने का संकल्प लिया। वह दूसरे दिन ठीक हो गया। बाद में अनाथी मुनि ने तप-साधना से अपना लक्ष्य साध लिया और सद्गति को प्राप्त हुए।
उन्होंने कहा वास्तव में श्रेणिक को अनुभव हुआ कि हम अनाथ हैं। जब तक भोगों की अधीनता नहीं छोड़ते, अनाथता सबके लिए है। केवल श्रमण वेश धारण करने से ही सनाथता नहीं आती। जो राग-द्वेष, काम भोगों की भावनाओं से ग्रसित होते हैं, वे श्रमण भी अनाथ ही होते हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र के 21वें समुद्रपाल अध्याय की विवेचना करते हुए उन्होंने कहा कि श्रेष्ठिपुत्र गवाक्ष से देखते हुए उसकी दृष्टि एक व्यक्ति पर पड़ी। उनको विचार आया कि जो अशुभ कर्म है, उसका फल दुखदायी है। वह संयम पथ पर आगे बढे। उन्होंने कहा कितना भी तूफान आए, मेरु पर्वत डिगता नहीं है। राग-द्वेष अहंकार का मूल है। हिंसा का परिणाम दुखदायी है। अरिष्ट नेमी तोरण द्वार से वापिस लौटे।
उन्होंने विवाह तक को नकार दिया। लेकिन आज हम चारों ओर हिंसा में रत हैं। अरिष्ट नेमी इंद्रियों पर नियंत्रण करने वाले दानेश्वर थे। कृष्ण ने भी उनको नहीं रोका। राजुल को भी कृष्ण ने संसार सागर पार करने का आशीर्वाद दिया। सम्यक दृष्टि के कितने उच्च भाव थे वे। साधु संतो के लिए हमारे भाव भी होने चाहिए कि वे अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ें। हम आगम में रहे हुए संदेश का अनुकरण करें तो कर्मनिर्जरा कर सकते है। शनिवार को उत्तराध्ययन सूत्र के लाभार्थी महावीर बोहरा, महेंद्र पुंगलिया, प्रकाश विशाल परिवार थे। अन्नदान के लाभार्थी पदमचंद कांकरिया परिवार थे। राकेश विनायकिया ने सभा का संचालन किया।