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ज्ञान वाणी

चिंतन के दो प्रकार: वीरेन्द्र मुनि

चिंतन के दो प्रकार: वीरेन्द्र मुनि

कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत धारा बरस रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि सुबाहु कुमारजी धर्म आराधना करते हुए रात्रि के तीसरे पहर में सोते हैं परंतु आंखों से नींद गायब हो गई। चिंतन शुरू हुआ मनुष्य को जब निद्रा नहीं आती है तब कुछ सोचने लगता हैं। चिंतन दो प्रकार का होता है एक तो कुटुम्ब जागरणा और दूसरा धर्म जागरणा।

 

( 1 ) एक कुटुम्ब याने परिवार के विषय में चिन्ता करना जैसे – कि घर परिवार में कोई बीमार है तो दवा डॉक्टर के विषय में सोचते रहते है। कौन से डॉक्टर को बताना जो अच्छा हो, जल्दी बीमारी को दूर कर सके  तथा पढ़ने वाले बच्चे हैं घर में बराबर पढ़ाई नहीं हो रही है तो कौन से मास्टर से पढ़ाना , या कौन से स्कूल कॉलेज में दाखिला दिलाना। विवाह योग्य हो गये और कहीं पर भी संबंध नहीं हो पा रहा है कैसे करना कहां मिलेगा या कोई कैस चल रहा है तो किस वकील से मिलना इत्यादि अनेक प्रकार से चिंता का कारण होता है।

( 2 ) धर्म जागरणा में धर्म की बातों का चिंतन होता है। जैसे कि सुबाहु कुमार ने चिंतन किया कि वह गांव नगर पूर पट्टन धन्य है जहां पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी विचरण करते हैं। वे राजा ईश्वर तलवर सेनापति सेठ साहूकार सार्थपति गाथापति मंत्री उमराव मुसद्दी धन्य है जो भगवान की वाणी को सुन करके अपने जीवन में उतारते हैं और श्रावक के 12 व्रतों को धारण करते हैं। संसार के मोह माया को त्याग करके संयम ग्रहण करते हैं, सुबाहुकुमारजी ने विचार किया मनुष्य में जानवर में क्या अंतर है। खाना पीना सोना भोग भोगना व शरीर के अंग कान, आंख, नाक,  मुंह, हाथ, पांव, पेट सब कुछ तो समान है तो फर्क क्या है। मनुष्य में विवेक है, धर्म है, ज्ञान है, समझ है, पशु में विवेक की कमी है और वह धर्म त्याग तपस्या साधना नहीं कर सकता परंतु मनुष्य सब कुछ विवेक के साथ कर सकता है।  अतः जो मानव हो करके धर्म नियम नहीं कर सकता वह पशु के समान है।

वे माता संशय ” पड्यो जानवर गढता मनुष्य गड्यो जठे चावता सींग और पूंछ वठे लगाई दाढ़ी और मूंछ ” अर्थात विधाता ने जानवर गढने के बदले मनुष्य का निर्माण कर दिया। जानवर के विधाता ने सिंग और पूंछ लगा दी वहीं पर विधाता ने मनुष्य के दाढी और मूंछ लगादी और जो मानव होकर भी पशुता का व्यवहार करते हैं। उनको कहा है धर्मेन हिना पशु भी समाना धर्म के बिना – बिना सिंग पूंछ का पशु है। अतः सुबाहू कुमारजी का चिंतन चल रहा था कि प्रभु महावीर की वाणी व संतो के दर्शन करने वाले पुण्यशाली व भाग्यशाली होते है। बिना पूण्य के हम न तो दर्शन कर सकते है और न भगवान की वाणी सुन सकते हम भी चिंतन करें सुबाहु कुमार की तरह।

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