किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा सुख दो प्रकार के होते हैं विषय सुख और प्रशम सुख। विषय सुख में संसार के सब सुख साधन आते हैं, जिसका हमें अनुभव है। प्रशम सुख में सुख के कारण नहीं से हमें पसंद नहीं आता। साधु जीवन ऐसा ही होता है फिर भी साधु के जीवन में आनंद है क्योंकि प्रशम सुख आत्मा का सुख है। हमें अपने जीवन में प्रशम सुख की अनुभूति हो, यह अभिलाषा होनी चाहिए।
उन्होंने कहा धर्म के दो स्वरूप है नकारात्मक और सकारात्मक। सब प्रकार की चीजें छोड़ना नकारात्मक धर्म है। हकीकत में चारित्र सकारात्मक स्वरूप है। चारित्र का मतलब है दस प्रकार के यति धर्म का पालन करना क्षमा, नम्रता, सरलता, संतोष, तप, संयम, सोच, सत्य, अकिंचन और ब्रह्मचर्य। इन सबका पुरुषार्थ करने से ही कोई साधु बनता है। केवल साधु वेष धारण करने से या धन संपत्ति, परिवार छोड़ने से कोई साधु नहीं बन पाएंगे। यति यानी जो छः काय जीवों की रक्षा करने का यत्न करे। सच्चे यति साधु होते है जो अपने जीवन में रात दिन ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप का पुरुषार्थ करते हैं। छोटे जीवों को भी पीड़ा न हो, उसकी चिंता करते हैं। वह नींद में भी करवट लेते समय जयणा करते हैं। उन्होंने कहा रात में सोते समय जीव हिंसा न करने की प्रतिज्ञा ली है तो नींद में कर्म निर्जरा होती है। बाह्य त्याग करने से कोई साधु नहीं बन जाता।
उन्होंने बताया शोच यानी शुद्धता दो प्रकार की होती है द्रव्य शोच व भाव शोच। द्रव्य शोच यानी शरीर को शुद्ध रखना आदि। भाव शोच यानी मन व विचारों की शुद्धता, पवित्रता रखना है। जिनशासन ने भाव शोच को महत्व दिया है। दूसरों की भूल को विस्मृत करना क्षमा है। सज्जन पुरुष कोई चीज का बुरा नहीं लगाते लेकिन महापुरुष को बुरा लगाने का अनुभव ही नहीं होता है। सब द्रव्य अपने स्वभाव में रहते हैं। बिच्छू का स्वभाव डंक मारना है, वह अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। एक संत का स्वभाव क्षमा, समता रखना होता है।
उन्होंने कहा क्रोध करने के लिए पुरुषार्थ करने की जरूरत भी नहीं रहती लेकिन क्षमा व समता रखने के लिए पुरुषार्थ करने की जरूरत होती है। पानी को गर्म करने के लिए पुरुषार्थ की जरूरत है लेकिन उसे ठण्डा करने के लिए पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि पानी का स्वभाव शीतल होता है। प्रवचन के दौरान साहुकारपेट में निर्माणाधीन जीरावला पार्श्वनाथ जिनालय के अध्यक्ष शांतिलाल जैन, सचिव किरिट जैन व अन्य ट्रस्टीगण ने आचार्य से आशीर्वाद ग्रहण किया और जिनालय की प्रतिष्ठा व दीक्षा कार्यक्रम में निश्रा प्रदान करने की विनती की।