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ज्ञान वाणी

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता: वीरेन्द्र मुनि

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता: वीरेन्द्र मुनि

कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता बह रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि आर्य सुधर्मा स्वामी जंबू स्वामी को फरमा रहे हैं भगवान महावीर स्वामी के ज्ञान दर्शन चारित्र के विषय में 11 गाथा में बता रहे हैं कि मेरु पर्वत इतना विशाल है कि तीनों लोक को स्पर्श कर रहा है।

मेरु पर्वत के चारों और 1121 योजन के अंतर पर सूर्य चंद्र ग्रह नक्षत्र और तारे ये पांच प्रकार के ज्योतिषियों के विमान प्रदक्षिणा करते हैं। मेरु पर्वत स्वर्ण के जैसा कांति वाला है और उसके चारों ओर बहुत सारे वन है। उनमें से चार मुख्य सुंदर वन है। समतल भूमि पर भद्रशाल वन है।

वहां से 500 योजन के ऊपर जाने पर मैंखला के स्थान पर नंदनवन आता है। वहां से साढे बासढहजार योजन जाने पर सोमनस वन है। वहां से 36 हजार योजन के ऊपर जाने पर शिखर के पास पंडग वन आता है। इसी पंडगवन पर ‘तीर्थंकर भगवान का जन्माभिषेक इंद्र और देवता मिलकर के करते हैं। मेरु पर्वत के ये चारों वन खंड में इंद्र भी देवलोक को छोड़कर के यहां आकर के प्रसन्नता का आनंद का अनुभव करते हैं।

इसी प्रकार भगवान महावीर स्वामी भी स्वर्ण सोने के समान थे प्रभु का शरीर गोल्डन की तरह चमकता था। शरीर में से रोशनी फूटती थी वैसे ही भगवान के केवल ज्ञान का प्रकाश था। वैसे भगवान सोने की तरह कांति वाले थे। जिस तरह मेरु पर्वत के चारों ओर वन खंड है। वैसे ही भगवान के चारों और ज्ञान दर्शन चारित्र व तप ये महान गुण थे।

इन महान गुणों में रमण करते हुए आनंद आता है। भगवान का ध्यान अटूट था भगवान के सामने अनुकूल था प्रतिकूल जैसे भी उपसर्ग आये जिनमें मनुष्य देवता या तिर्यचो के द्वारा आये परंतु भगवान अपने ध्यान से विचलित नहीं हुवे। हम लोगों का ध्यान और जाप कैसा होता जरासी कहीं आवाज सुनाई दी तो ध्यान से विचलित हो जाते हैं।

ध्यान कर रहे हैं और कहीं से फिल्मी गीतों की धुन सुनाई देती है। तो हमारा ध्यान टूट जाता है लेकिन। भगवान का नहीं हमारा मन बड़ा चंचल है मन बाहर ही भटकता रहता है। लेकिन भगवान का नहीं भगवान् के द्वारा बताये हुवे ज्ञान दर्शन चारित्र तप धर्म रूपी वन में रमन विचरण करते हैं। उन्हें आनंद की अनुभूति हो सकती है।

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