कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता बह रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी को मेरु पर्वत की उपमा दी गई है।
आर्य जंबू स्वामी को आर्य सुधर्मा स्वामी फरमा रहे थे – मेरु पर्वत एक लाख योजन का है उसके तीन कांड है। पहला कांड भूमिमय कांड है। दूसरा स्वर्णमय अर्थात सुवर्णमय और तीसरा वैडूर्य रत्न मय का कांड है। उस मेरु पर्वत के शिखर पर पंडगवन है।
वह पंडगवन ध्वजा की तरह शोभायमान होता है। इसी पंडग वे जयंते कहलाते हैं। मेरु पर्वत एक हजार योजन जमीन के अंदर है और ऊपर में 99 हजार योजन है। मेरु पर्वत की नीव कितनी मजबूत है। एक हजार योजन जिसके कारण कितनी आंधी तूफान आये पर वह अडिंग खड़ा है।
वरना आंधी तूफान व भूकंप में कितने जमीन पर गिर पड़ते हैं। क्योंकि मेरु पर्वत शाश्वत है मेरु पर्वत शाश्वत है। मेरु पर्वत तीनो लोक में है उर्ध्वलोक – ति२च्छा लोक और अधोलोक -हम बिल्डिंग बनाते हैं तो उसकी नींव गहरी और मजबूत बनाते है तभी बिल्डिंग ठहर सकती है।
उसी प्रकार भगवान के भी ज्ञान दर्शन चारित्र आदि रत्नत्रय गुणों समस्त लोक में व्याप्त है। उनके ज्ञानादि रूप तीनों रत्न सुमेरु पर्वत के समान विशाल और महान है।