कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता बह रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि आर्य सुधर्मा स्वामी ने जंबू स्वामी से कहा कि – भगवान महावीर स्वामी काश्यपगोत्रीय थे।
जिस प्रकार हजारों देवों का अधिपति इंद्र है जो कि रूप बल ऐश्चर्य वाले हैं। उसी प्रकार भगवान महावीर स्वामी भी सभी मुनियों में रूप गुण बल ऐश्वर्य आदि से सर्वोत्तम है। उन्होंने पूर्व के ऋषभदेव भगवान से लेकर के 23 तीर्थंकरो ने जिस प्रकार धर्म की व्याख्या – परुपणा करके गये हैं।
उसी प्रकार भगवान ने भी धर्म के मर्म को समझाया वैसे जिन लोगों को जैन धर्म के विषय में अधूरी जानकारी है। कई यह जानते हैं और कहते भी है कि हिंदू धर्म में से जैन धर्म निकला है उन लोगों को यह नहीं पता है कि जैन धर्म से हिंदू धर्म व अन्य धर्म की उत्पत्ति हुई है। क्योंकि जिस समय प्रथम तीर्थंकर भगवान ने दीक्षा धारण की थी ऋषभदेव भगवान के साथ उस समय लोगों यह ज्ञान नहीं था कि आहार पानी कैसे बहराना साधु महाराज की चर्या क्या है।
तब आहार न मिलने से कईयों ने अलग-अलग धर्म को अपनाया तभी से 363 मत मतान्तर चल रहे हैं। सभी का उद्गम स्थान जैन धर्म है। वैसे अनंत चौबीसी हो गई जैन धर्म में परम पूज्य एका भवतारी श्री जयमलजी म सा ने बड़ी साधु वंदना की पहली ही गाथा में साफ लिखा – नमूं अनंत चौबीसी ऋषभादिक महावीर आदि। तो जैन धर्म पहले से था है और रहेगा – यह कभी खत्म होने वाला नहीं है।
जिसकी आदि है उसका अंत है अतः जैन धर्म आदि अंत रहित अनादि कालिन है भगवान महावीर स्वामी ने उनके पहले जो तीर्थंकर हो गये हैं उन्होंने जो धर्म का प्रचार किया है। उसी को भगवान महावीर स्वामी ने अपने ज्ञान के द्वारा जांच करके परख के भगवान ने फरमाया कि यह धर्म तारणहार है।
भवसागर से पार लगाने वाला है। प्रभु महावीर ने तो सिर्फ चतुर्विध संघ की स्थापना की है जो कि सभी तीर्थंकर करते आये हैं और ज्ञान दर्शन चारित्र रूप तीन रत्न तथा अहिंसा संयम तप आदि की परुपणा की है।