माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में धर्मसभा को संबोधित करते हुए महातपस्वी आचार्य श्री महाश्रमण ने तप साधना के बारे में बताते हुए कहा कि कर्म काटने है, तो तपस्या की शरण में जाना ही होगा| उपवास आदि हो सके तो करे, नहीं तो ऊनोदरी तो अवश्य करे, थोड़ा कम खाना ऊनोदरी है| इससे उदर का, जिह्वा का संयम होता हैं|
ऊनोदरी में केवल खाने की ही नहीं, कपड़ों, शब्दों की भी ऊनोदरी होनी चाहिए| अपने उपयोग के लिए कम कपड़े काम में लेना| शब्दों में ज्यादा नहीं बोलना, गुस्से में या तूं-तूं, में -में नहीं करना| कलह नहीं करना, झगड़ा नहीं करना, तो यह शब्दों की भी ऊनोदरी हो जाती हैं| इस प्रकार अल्पता रखना ऊनोदरी हो जाती हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमारी साधना के साथ तप को भी जोड़े रखने का प्रयास करना चाहिए| रात को बारह बजे से सूर्योदय से एक मूहर्त दिन उगे तक चौविहार त्याग करना, यह नवकारसी तप करे| पोरसी, एकासण, आयम्बिल, रात्रिभोजन चौविहार या तिविहार परित्याग आदि तप की साधना करे| जैसे सीरे (हलवा) में जितना गुड़ डालेंगे, उतना मीठा होगा, तो जितना त्याग प्रत्याख्यान करेंगे, उतना ही हमें लाभ मिलेगा| तो हम ये बाह्य तप को अपनी जीवन चर्या के साथ जोड़ने का प्रयास करें|
तप रूपी अग्नि से आत्मा रूपी सोना है निखरता
आचार्य श्री ने आगे कहा कि अध्यात्म के क्षेत्र में तप को धर्म बताया गया हैं| तप वह चीज है, जिससे आत्मा के कर्म कटते हैं, पाप कर्म झड़ते हैं और चेतना निर्मल बनती हैं| जैसे अग्नि के योग से स्वर्ण का स्वरूप उभर जाता हैं, निखर जाता हैं, उसी प्रकार तप रूपी अग्नि, आत्मा रूपी सोने को निखार देती हैं, स्वरूप को उभार देती हैं| तपस्या में एक शक्ति होती हैं| जहां संवर का काम नये सिरे से आने वाले कर्मों के, आगमन के मार्ग को रोक देना है, दरवाजा बन्द कर देना हैं| वही तपस्या का काम है, भीतर में पहले से संचित कर्म है, उनकी सफाई करना, सफाया करना|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि तपस्या के मूल दो प्रकार होते हैं बाह्य तप और आभ्यान्तर तप| जिस तप का प्रभाव बाहर भी दिखाई देता है, वह बाह्य तप हैं और बाह्य तप से आभ्यान्तर तप पृष्ट होता हैं| बाह्य तप के छह प्रकार हैं – पहला हैं अनशन| यानि आहार को छोड़ देना| उपवास या उससे अधिक निराहार तपस्या करना, एक सीमित काल का तप इतवरिक अनशन हैं| इसका एक उदाहरण देखना है, तो चेन्नई चातुर्मास में इस बार जो मासखमण या उससे अधिक के जो आंकड़े आये हैं, वे अपने आप में उदाहरण हैं|
एक होता हैं यावतवरिक तप यानि आजीवन संथारा, अनशन स्वीकार कर लेना| दूसरा है – ऊनोदरी, खाने में कमी करना| स्वास्थ्य के लिए ऊनोदरी एक अच्छा तप हैं| तीसरा तप हैं -भिक्षाचर्या – अभिग्रह करना, भगवान महावीर के अभिग्रह की घटना बताते हुए कहा कि जैसे 13 बोलो के अभिग्रह में आंखों में आंसू नहीं देखने पर भगवान वापस मुड़ जाते हैं, तब चन्दनबाला की आँखों में आंसू आये कि औरों ने तो, छोड़ा तो छोड़ा, प्रभु आप भी जा रहे हो|
आँसू आये और तेरह अभिग्रह फलते ही भगवान ने भिक्षा ग्रहण की| श्रावक भी तपस्या आदि में अभिग्रह करते हैं|
आचार्य श्री ने आगे बताया चौथा तप है – रस परित्याग यानि दूध, दही, घी, तेल, शक्कर आदि छह विगयों का, विकृतियों का भोजन में त्याग करना| पाँचवा प्रकार हैं – कायक्लेश| सिद्धासन, पद्मासन आदि लगाकर ध्यान, कायोत्सर्ग करना| शरीर को साध लेना एवं कष्ट हो तो सहन करना| छठा तप हैं – प्रतिसंलीनता| पाँचों इन्द्रियों का बाह्य आकर्षण खींच लेना, वश में कर लेना| तो यह सब बाह्य तप के भेद है, इनसे हमारे कर्मों की निर्जरा होती हैं|
साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा ने कालू यशोविलास का वाचन करते हुए कहा कि भाग्यहीन संयम रत्न को पाकर खो देता है| चातुर्मास व्यवस्था समिति के उपाध्यक्ष श्री छतरमल बैद, श्री गौतमचन्द समदड़िया, श्री गौतमचन्द धारीवाल, श्री एम रमेशचन्द बोहरा, टीपीएफ से श्रीमती प्रमीला गोलेच्छा ने अपने विचार व्यक्त किये| महेन्द्र सिंघी ने विदाई गीत का संगान किया|
श्रीमती हंसा दसाणी गर्ग ने अपनी पुस्तक एक चिट्ठी अनाम पते की का लोकार्पण कर अपनी भावना प्रस्तुत की| कार्यक्रम का कुशल संचालन करते हुए मुनि श्री दिनेश कुमार ने कहा कि संभव हो तो साधु बने, वैसा न हो सके तो श्रावक धर्म को जीवन में अपनाना चाहिए|
✍ प्रचार प्रसार विभाग
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति