चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरीश्वर ने कहा मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण यानी आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्रकट करना। उसके लिए सबसे पहले आत्मा की मलिनता के तत्व यानी विषय और कषायों मोह, माया, क्रोध, लोभ पर विजय प्राप्त करनी है।
इन पर विजय प्राप्त करके ही केवल्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है। इनको जीतना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए इन कषायों को समझने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा क्रोध से प्रीति का नाश होता है। गीता के एक श्लोक में कहा गया है क्रोध से सम्मोहन पैदा हो जाता है।
क्रोध पैदा होने पर व्यक्ति कर्तव्य का भान और यहां तक कि अपना अस्तित्व ही भूल जाता है। क्रोध के कारण मानसिक विचार करने पर भी आत्मा दूषित हो जाती हैं। क्रोध आने के बाद शीघ्र प्रायश्चित न करने पर भवों भवों तक वैर चलता रहता है।
जब तक क्रोध का निमित्त नहीं मिले तब तक कुछ नहीं। आपने उस पर विजय पाने का प्रयास किया है। जब तक आप क्रोध से मुक्ति नहीं पाओगे, मोक्ष या निर्वाण के साधक नहीं बन सकते है।
तीर्थंकर की आत्मा को भी सातवें नरक में जाना पड़ा, इसका मूल था क्रोध। उन्होंने कहा हमें कभी बदला लेने की भावना भी नहीं रखनी चाहिए। बाह्य परिवार में माता पिता, पत्नी, संतान आदि है।
अंतरंग परिवार में मान, माया, क्रोध, लोभ आदि है। उन्होंने कहा जिसके हृदय में शुद्ध सम्यक दर्शन है उसे यह संसार, कुटुम्ब कारागृह के समान लगता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो अभी भी सम्यक दर्शन अधूरा है।