चेन्नई. वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा भगवान महावीर के जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट परिषद उपसर्ग उपस्थित हुए किंतु वे कभी परिषहों से घबराए नहीं।
साधना के दहलीज पर कदम रखने के पश्चात संयमी साधक के जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता रूप अनेक परिषह उपस्थित होते रहते हैं। परीषह साधना के कसौटी होते हैं जिसमें महापुरुष शत प्रतिशत उत्तीर्ण होते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर बनते रहते हैं। कष्ट आने से पूर्व ही मानसिक रूप से तैयार रहने वाला व्यक्ति आसानी से उसका सामना कर लेता है।
दुख के समय में जितना समभव रखना जरूरी है उतना ही सुख के समय में भी जरूरी है। अन्यथा अहंकार आने की संभावना ज्यादा रहती है। समभाव धारण करने का एक सरल सूत्र है क्रिया की तुरंत प्रतिक्रिया न करना। प्रतिकार न करते हुए जो हर परिस्थिति में मन: स्थिति को संतुलित बना कर रखता है उसके हर पल हर क्षण भाव सामायिक की आराधना हो सकती है।
मुनि ने श्रावक के 11 वें गुण मध्यस्थता के अंतर्गत मान-अपमान रूपी द्वंद्व का विवेचन करते हुए कहा दूसरों के द्वारा सम्मान मिलने पर अथवा प्रशंसा किए जाने पर अहंकार में न जाते हुए यही चिंतन करना चाहिए कि सम्मान मेरा नहीं अपितु गुणों का हो रहा है। अहंकार के नशे में चकनाचूर न होते हुए सावधानी बरतनी जरूरी है।
मान-सम्मान, पद, यश यह सब अस्थायी होते हैं। जो आज है वह जरूरी नहीं हमेशा बना रहे । अहंकार में व्यक्ति फूलता है लेकिन फलता नहीं। जिंदगी में एक बार होने वाले अपमान को ना सहन करने के कारण सामने वाले के प्रति वैर की गांठ बांध ली जाती है।
जबकि अपमान को सहन करना जहर की घूंट पीने के समान है। गलती ना होने पर भी अपमानित होने पर यही चिंतन करना चाहिए गलती इस भव की नहीं अपितु पर भव की है।
इस अवसर पर 130 महिलाओं ने काले वर्ण का एकासन किया। मुनिवृंद के सानिध्य में कल जन्माष्टमी का विशेष प्रवचन एवं जयधुरंधर मुनि का जन्म दिवस मनाया जाएगा।