भगवान महावीर के जीव ने अनन्त भव किये हैं| आगमों में उनके 27 मुख्य भवों का वर्णन मिलता हैं| उनका जीव नीचे में सातवीं नरक तक गया, तो कभी चक्रवर्ती, वासुदेव भी बना| कई भवों में कठोर साधना का जीवन भी जीया, तो कभी देव गति में भी गया| यह सब तो कर्मवाद का सिद्धांत हैं| तीर्थकर बनने वाली आत्मा ने पाप कर्म किया है तो उन्हें स्वयं भोगना ही पड़ेगा, भुगतान करना ही होगा, उपरोक्त विचार माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में धर्म सभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहे|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि कर्मवाद नीतिपूर्ण न्यायालय है, यह निष्पक्ष हैं| बड़े से बड़ा कोई भी जीव हो, जिसने पाप कर्म किये हैं, उसे इस न्यायालय में दया नहीं मिलती और निर्दोष को दंड नहीं मिलता| हमारे देश में उच्च न्यायालय है, सर्वोच्च न्यायालय हैं, पर यह सर्वोच्च न्यायालय से भी ऊपर हैं, इससे कोई दोषी छूट नहीं सकता, दंड मिलता ही हैं| लोकतंत्र में सर्वोच्च न्यायालय हैं, वहा गलती हो सकती हैं, फैसला रद्द हो सकता है, पर कर्मवाद का निष्पक्ष न्यायालय हैं, वहा कोई गलती नहीं हो सकती| वकील झूठ साच करके किसी को छोडा सकता हैं, पर कर्मवाद के न्यायालय से कोई छूट नहीं सकता, जिसने जैसे कर्म किये हैं, भोगने ही पड़ेगे|
आचार्य श्री ने ठाणं सुत्र के दूसरे स्थान के 446 वे श्लोक का विवेचन करते हुए कहा कि उतरा फाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे हैं| भगवान महावीर का जीवन संक्षेप में आयारो और आचारचूला आगम में प्राप्त होता है| भगवान महावीर के पांच कल्याणक हस्तोतर (उतरा फाल्गुणी) नक्षत्र में हुए हैं| भगवान का जीव दसवे देवलोक से च्युत होकर देवानन्दा की कुक्षि में स्थित हुआ तब उतरा फाल्गुणी नक्षत्र था|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि *देवता अमर नहीं हो सकते, सर्वार्थ सिद्ध देवलोक के देयताओं का आयुष्य उत्कृष्ट 33 सागरोपम हैं| सातवी नारकी के जीवों का आयुष्य भी 33 सागरोपम तक का हो सकता है, पर सभी का आयुष्य पूर्ण होता है|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जैन श्वेतांबर परम्परा के अनुसार वे देवलोक से च्युत होकर ब्राह्मण कुल में आये, देवेन्द्र ने ज्ञान के द्वारा देखा और चिंतन किया कि तीर्थकर जैसी आत्मा तो क्षत्रिय कुल में ही पैदा होती हैं| देवेन्द्र के निर्देश से हरिणगवेशी देव ने गर्भ का संहरण करके देवानन्दा की कुक्षी से त्रिशाला रानी की कुक्षी में स्थित किया, उस समय भी उतरा फाल्गुनी नक्षत्र था| भगवान महावीर के जन्म, दीक्षा एवं कैवल्य ज्ञान के समय भी उतरा फाल्गुणी नक्षत्र था| यह नक्षत्र भी धन्य हो गया कि भगवान महावीर के पंच कल्याणक उतरा फाल्गुणी नक्षत्र में हुए|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि घटना आती हैं कि महावीर का जीव जब त्रिशाला माता के गर्भ में था, तब माता को पीड़ा न हो इसलिए हलन चलन बन्द कर दिया, पर उनकी माता गर्भ के हलन चलन न करने के कारण दुखी हुई| तब *मोहानुकंपा के भाव से संकल्प किया कि जब तक माता पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा नहीं लुंगा| माता पिता के प्रति कितनी संवेदना की भावना| ऐसा उदाहरण इतिहास में श्रवण कुमार का मिलता हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक विशिष्ट साधना कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया| भगवान महावीर ने साधना काल में कितना पराक्रम और पुरूषार्थ किया| साधना काल में देव, मनुष्य और तिर्यंच द्वारा अनेक उपसर्ग एवं कष्ट की स्थिति उत्पन्न की गई, फिर भी उन्होंने बड़े ही धैर्य पूर्वक कष्ट सहन किये और तीर्थकर बन गये| “भगवान महावीर प्रणम्य पुरूष थे|” उनका स्तवन करने और जीवनवृत पढ़ने से प्रेरणा मिल सकती हैं|
आत्मिक ज्ञान से बढ़ती विनम्रता : साध्वी प्रमुखाश्री
साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा ने कहा कि जीवन की परिस्थितियों से जुझने के लिए अंतिम आलम्बन है – विनम्रता| नम्रता आत्मा का सहज गुण हैं| संसारी आत्माएँ विजातीय गुणों (क्रोध, मान, माया, लोभ) को भी ग्रहण कर लेती है| आत्मा में अच्छाई है, बुराई भी है| व्यक्ति को अंहकार नहीं करना चाहिए| अंहकार, मद रूपी रोग को दूर करने का उपाय हैं – ज्ञान रूपी औषध| विधा से विनय आता है, “आत्मिक ज्ञान से विनम्रता का विकास होता है|”
समस्याओं का समाधान – अनेकांत
साध्वी प्रमीलाश्री ने कहा कि अनेकांत विचारधारा वाला व्यक्ति सदैव विकास की ओर अग्रसर हो सकता है, सफल हो सकता है, विवाद से दूर रह कर जीवन आनन्दमय बना सकता हैं| तपस्वीयों ने तपस्या का प्रत्याख्यान किया| कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार ने किया|
प्रचार प्रसार विभाग
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई