जयमल जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में जयधुरंधर मुनि ने श्रावक के 12 व्रतों के शिविर के दौरान पांचवें व्रत का विवेचन करते हुए कहा परिग्रह परिमाण का भावार्थ यही है कि साधक को ममत्व घटना चाहिए । आसक्ति, संग्रहवृत्ति और अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा भी परिग्रह कहलाता है। वस्तु , धन, संपदा आदि का अनियंत्रित परिग्रह पाप समझा जाता है ।
वही इन परिग्रहों का परिमाण करते ही वह धर्म हो जाता है । एक व्यक्ति के पास चाहे कुछ खास संपत्ति नहीं है लेकिन यदि इच्छा तृष्णा ज्यादा है तो वह महा परिग्रह कहलाता है और दूसरी तरफ भरत चक्रवर्ती के सामान अपार संपत्ति के स्वामी भी अपरिग्रही कहलाते हैं क्योंकि वह अनासक्त भाव से अपने कर्तव्य का पालन करते हैं ।
जिस प्रकार एक साधु वस्त्र उपकरण आदि को मात्र साधना का साधन समझता है उसी प्रकार श्रावक को भी धन को साधन समझना चाहिए साध्य नहीं।
मुनि ने चार प्रकार के खड्डो का वर्णन करते हुए कहा कि ये खड्डे आसानी से नहीं भरे जा सकते हैं समुद्र जिसमें कितनी ही नदियों का पानी आकर मिल जाता है फिर भी वह खड्डा नहीं भरता। श्मशान में कितने ही मुर्दे जलाए या गाड़े जाते हैं फिर भी वह खड्डा नहीं भरता । पेट में भी न जाने कितना ही खाना डाल दिया जाता है फिर भी वह खड्डा भी नहीं भरता।
इसी तरह इच्छाओं का खड्डा भी आसानी से नहीं भरता। इच्छाओं का खड्डा भरने का एकमात्र एवं सरल उपाय परिग्रह का परिमाण करना है। वर्तमान में चाहे कुछ भी ना हो किंतु भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक श्रावक को परिग्रह का परिमाण करना चाहिए । ऐसा करने से उसे संतोष भी होगा तृप्ति भी होगी और इच्छाओं का भी अंत हो जाएगा।
उसे सुख चैन शांति की प्राप्ति होगी । श्रावक का पहला मनोरथ यह है कि वह दिन धन्य होगा जिस दिन वह सभी आरंभ परिग्रह से निवृत होगा । किंतु जब तक मन इतना दृढ़ नहीं हो पाता तब तक उसे परिग्रह का परिणाम कर लेना चाहिए । श्रावक को सांसारिक प्रवृत्ति से निवृत्त होने के पश्चात यह व्रत ग्रहण किया जाना चाहिए।
आनंद श्रावक के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए बताया कि उनके पास विपुल मात्रा में धन संपत्ति एवं वैभव था फिर भी वह अनिच्छुक कहलाए तथा एकाभवावतारी बने क्योंकि वहां वैचारिक ममत्व तो नहीं था।
यदि कोई सीमा अतीत धन एकत्रित करने के लिए शरीर का ध्यान नहीं रखते हुए समय पर भोजन नहीं करता है, पर्याप्त नींद नहीं लेता है तो उसे कालांतर में तन की रक्षा के लिए पानी की तरह धन बहाना पड़ सकता है। इसीलिए श्रावक को एक गहरे में अपनी इच्छाओं को सीमित करना जरूरी है।
अगर व्रत नहीं लिया हुआ रहता है तो मन रुकता ही नहीं है । आग में घी डालने का काम करने वाली इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है। श्रावक के पांचवें व्रत में अर्थशास्त्र गणित व्यापार संचालन आदि की कला भी सम्मिलित हो जाती है।
धर्म सभा में बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित थे । संचालन महिपाल चौरडिया ने किया।