चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने प्रतिक्रमण का महत्व बताते हुए कहा कि आराधक की आत्मा दुख की चिंता नहीं करती अपितु पाप की चिंता करती है।
दुख आने पर वह घबराता नहीं और न ही उसके निवारण का प्रयास करता है। वह समभाव से उस पाप के उदय को सहन करता है, दुख को सहन करता है और अपने कर्मों का क्षय करता है।
उन्होंने कहा देववंदन के बाद चार वंदन आते हैं भगवानम, आचार्यम, उपाध्यायम, एवं सर्व साधुभ्यं। यह वंदन गच्छाधिपति, आचार्य, ज्ञान सिखाने वाले उपाध्याय, एवं सर्व साधु भगवंत को होता है। यह गुरु के प्रति श्रद्धा और विनय है । इसके पश्चात सव्व सवी सूत्र के साथ प्रतिक्रमण की स्थापना होती है।
उन्होंने कहा आसन का असर हमारे भावों पर भी होता है। बीज सूत्र कमर झुकाकर, मस्तक जमीन को छू कर, मु_ी बंद करके बोला जाता है। पापों के बोझ व लज्जा से मस्तक झुकाकर , दोबारा गलती ना करने का संकल्प मुट्ठी बंद करके लेता है, फिर चारित्राचार की आठ गाथा का कायोत्सर्ग होता है और आलोचना, यानी गुरु के सामने अपने दिन भर के दोषों को प्रकट करता है।
उन्होंने बताया सम्यक ज्ञान और दर्शन मुक्ति का परंपर कारण है और सम्यक चारित्र अनंतर कारण। बार बार गुरु के वंदन से चारित्र मोहनिय कर्म का क्षय होता है।