चेन्नई. तप वह अग्नि है, जिसमें आत्मा रूपी सोना शुद्ध होकर कुंदन बन जाता है। जैन परंपरा में आयंबिल तप एक विशेष प्रभावशाली तप साधना मानी जाती है। इस तप के प्रभाव से जीवन के दु:ख- संकट तो मिटते ही हैं, साथ ही सुख-शांति समृद्धि भी जीवन में प्रकट होती है। यह विचार ओजस्वी प्रवचनकार डॉ.वरुण मुनि ने जैन भवन, साहुकारपेट में प्रवचन करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा प्राचीन जैन ग्रंथों में श्रीपाल मैना सुंदरी का बड़ा ही प्रसिद्ध इतिहास आता है। मैना सुंदरी के पिता ने जब प्रश्न किया कि -तुम्हारा विवाह किस राजा महाराजा से किया जाए तो उस समय राजकुमारी ने कहा पिता श्री उत्तम कुल की संतानें अपने मुख से ऐसी बात स्वयं माता-पिता के सम्मुख नहीं बोलती। दूसरी बात जहां मेरे कर्म संयोग होंगे, वहां मेरा विवाह हो जाएगा, आप व्यर्थ ही चिंता न करें। पिता के अहं भाव (ईगो) को ठेस पहुंची और उन्होंने एक कुष्ठी के संग उसका विवाह कर दिया। मैना सुंदरी जो स्वयं साक्षात अप्सरा से भी अधिक सुंदर थी, वह इस घटना से विचलित न हुई अपितु कुष्ठी पति को ही परमेश्वर मान कर उसकी सेवा में लग गई। उसके मन में पिता के लिए कोई शिकवा – शिकायत न थी।
संयोग से उसे जैन संत-मुनिराज के दर्शन हुए। प्रश्न करने पर उन्होंने नव पद आयंबिल ओली जी की जप-तप साधना बतलाई। पति-पत्नी दोनों ने ही बड़ी श्रद्धा से विधि पूर्वक वह आराधना की। जिसके फलस्वरूप न केवल श्रीपाल का अपितु 700 उसके साथियों का भी कुष्ठ रोग ठीक हो गया। आयंबिल ओलीजी तप-जप की साधना से ऐसा पुण्य प्रगट हुआ कि श्रीपाल अनेक देशों का राजा बना तथा मैनासुंदरी के पिता को अपनी भूल का अहसास हुआ कि -वास्तव में हर व्यक्ति के शुभ – अशुभ कर्म ही उसे सुख-दु:ख प्रदान करते हैं। आसोज सुदी सप्तमी से आसोज पूर्णिमा तक नौ दिन की यह शाश्वत ओली जी तप आराधना हजारों-लाखों की संख्या में साधु-साध्वी जी एवं श्रावक-श्राविकाएं प्रतिवर्ष करते हैं। आयंबिल तप के साथ साथ नवकार महामंत्र के नव पद की साधना वास्तव में महान प्रभावशाली है। सभी भाई-बहनें इसमें जुडऩे का प्रयास करें।