इन्द्रिय विजय की साधना, अध्यात्म की एक बहुत ही महत्वपूर्ण साधना होती हैं| व्यक्ति पांचों इंद्रियों एवं मन का संवरण करने का प्रयास करें| अनावश्यक इन्द्रियों का व्यापार न करे, प्रवृत्ति न करे| प्रवृत्ति करनी अपेक्षित हो तो राग द्वेष का भाव न आये, ऐसा प्रयास करना चाहिए, उपरोक्त विचार माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के 16वें सूत्र का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहे|
इन्द्रियों का संवरण, कल्याण की दिशा में सहायक
आचार्य श्री ने आगे कहा कि यह तो मुश्किल है कि कान में शब्द पड़े ही नहीं, यह असत्यता है कि आँख रूप देखे ही नहीं, नाक में गंध आये ही नहीं, जिह्वा पर पदार्थ आये ही नहीं, त्वचा में स्पर्श हो ही नहीं, यह कठिन बाते हैं| परन्तु उसमें राग द्वेष नहीं करे, अनासक्त रहें| यह इन्द्रियों का संवरण करने से कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं|
आश्रव भव–भ्रमण का हेतु
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हवेली का दरवाजा आगमन का मार्ग हैं, नौका में छेद पानी अन्दर आने का रास्ता बनता हैं, उसी तरह आश्रव रूपी छेद से, कर्म रूपी पानी चेतना में आ जाता हैं| आश्रव, असंवर असंयम की अवस्था में होता हैं| आश्रव भव-भ्रमण, जन्म-मरण का हेतू बनता हैं| यानि आश्रव संसार का कारण हैं, और संवर मोक्ष का कारण हैं|
“पानी तो बहता भला, दाग न लागे कोय“
आचार्य श्री ने आगे कहा कि व्यक्ति प्रमाद में आता है, वह साघना में कमजोरी लाना वाला होता हैं, जैसे साधु को सामान्यतया, अनुकूल परिस्थितियां में एक ही जगह दो वर्ष के अन्तराल से पूर्व चातुर्मास नहीं करना चाहिए, क्योंकि एक जगह जमकर रहने से कठिनाई पैदा हो सकती हैं| जैसे कहा गया है कि “पानी तो बहता भला, दाग न लागे कोय” उसी तरह साधु भी रमता रहे, तो मोह का दाग नहीं लगेगा, संयम, तप की साधना में स्थिथीलता नहीं आयेगी, चारित्र की विराधना नहीं होगी| तो व्यक्ति प्रमाद की स्थिति में नहीं जाएं|
लगाम खीचने से होता पाप रूपी कर्मों से बचाव
आचार्य श्री ने आगे कहा कि इन्द्रियों का असंयम, हिंसा, झूठ आदि प्रवृत्तियां होती हैं, तो व्यक्ति के पाप कर्मों का बंधन हो सकता हैं| हमें इन्द्रियों का संवरण करना चाहिए| वीर पुरुष जहां कहीं देखे कि शरीर से, वाणी से, मन से कोई दुष्प्रवृति हो रही हैं, तत्काल अपना संहरण कर ले, जागरूक हो जाए, घोड़े की लगाम खीच लें| लगाम खीचने से पाप रूपी कर्मों से बचाव हो सकता हैं|
स्वाद विजय की करे साधना
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जिह्वा का व्यक्ति असंयम, असंवर कर लेता हैं| खान पान में आसक्ति, मनोगय पदार्थ को अधिक मात्रा में खा लेता हैं, जिससे तकलीफ भी पाता हैं| स्वाद तो जीभ को आया, लेकिन परिणाम शरीर के अन्य अंग भोगते है, पेट दुखता है, दस्त लगती हैं और भी कठिनाई आ सकती हैं| वैसे तो जीभ को जीतना आसान काम नहीं है| लेकिन जो जिह्वा पर विजय पा लेता है, नियंत्रण कर लेता हैं, स्वाद विजय की साधना कर लेता हैं, वह व्यक्ति धन्य हैं, साधना के उच्च मार्ग पर गतिशील हो सकता हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि *इन्द्रियों के असंवर से आदमी अपना नुकसान कर लेता हैं|* जैसे पतंगा चक्षुन्द्रिय, आँख के असंयम, अग्नि के आकर्षण के कारण, अग्नि में गिर कर मर जाता हैं| भँवरा (मधुकर) कमल कोष में सुगंध के वशीभूत होकर, उसमें रह जाता हैं और प्राणांत को प्राप्त कर लेता हैं| तो हम इन इन्द्रिय विषयासक्ती से, आत्मा के नुकसान से बचे| आसक्ति, राग द्वेष कर्म बंधन का कारण बनती हैं, तो हम इन्द्रिय विजय की साधना करके आत्म कल्याण के मार्ग की में आगे बढ़े|
मुमुक्षु बहनों ने सामूहिक गीतिका, भावाभिव्यक्ति से आराध्य की अभिवंदना की| श्री मरलेचा ने गीतिका का संगान किया|
*✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*
स्वरूप चन्द दाँती
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति