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भक्त की परम विशुद्ध अवस्था ही भगवान है

भक्त की परम विशुद्ध अवस्था ही भगवान है

गांधीनगर, बैंगलोर चातुर्मास- वरुण वाणी

श्री गुजराती जैन संघ, गांधीनगर, बेंगलुरू में श्रमण संघीय उपप्रवर्तक प. पू. श्री पंकजमुनिजी म.सा., दक्षिण सूर्य ओजस्वी प्रवचनकार प. पू. डॉ. श्री वरुण मुनि जी म.सा., मधुर वक्ता कर्मयोगी पूज्य श्री रूपेशमुनि जी म. सा. आदि ठाणा-3 के पावन सानिध्य में 2025 का चातुर्मास गतिमान है ।

चातुर्मास के दूसरे दिन आज ओजस्वी प्रवचनकार डॉ. श्री वरुण मुनि जी म. सा. ने अपने प्रवचन में फरमाया कि तीन शब्द हैं -भक्त, भक्ति और भगवान । जो भक्ति करे, उसका नाम भक्त है । भक्ति गुरु और भगवान की हो सकती है । प्रभु के प्रति प्रेम, समर्पण, स्तुति, श्रद्धा, समर्पण, जप, पूजा, आराधना, अरदास, नमाज, प्रार्थना आदि भक्ति के अनेकानेक रूप हो सकते हैं । भक्त को भगवान से मिलाने का सेतू या ब्रिज या सोपान या उपाय आदि को भक्ति कहते हैं । भक्ति की परम विशुद्ध अवस्था का नाम ही भगवान है ।

भगवान आदिनाथ से जब पूछा कि आपके समवशरण में अनेक राजा- महाराजा, चक्रवर्ती, मन:पर्यव ज्ञानी, देवी, देवता, मनुष्य तिर्यंच आदि विराजित है, इनमें से कौन तीर्थंकर बनेगा ? प्रभु ने फरमाया – मेरी समवशरण के बाहर बैठा भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि अंतिम तीर्थंकर बनेगा। अन्य दर्शन में जहां भगवान के दास, सखा या अनुगामी बन सकते हैं, वही जैन दर्शन कहता है कि हर मानव को अधिकार हैं कि वह स्वयं परमात्मा बन सकता है । क्योंकि आत्मा की परम विशुद्ध दशा ही परमात्मा का रूप है।

आचार्य मानुतुंग द्वारा रचित भक्तामर स्तोत्र में भक्त, भक्ति और भगवान इन तीनों का समावेश हो जाता है । इस स्तोत्र में आचार्य मानुतुंग भक्त हैं, उनके द्वारा रचित 48 गाथाएं भक्ति का स्वरूप है, तो इसमें तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की स्तुति की गई है । इसके प्रथम श्लोक के प्रथम अक्षर भक्तामर से ही इसका नामकरण भक्तामर स्तोत्र रखा गया है। हजारों-लाखों श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी प्रतिदिन प्रात:काल इसका पठन करते हैं । भक्तामर शब्द दो अक्षरों से बना है । भक्त+अमर – जैसे दशानन में दस+आनन, पीतांबर में पीत+अंबर, श्वेतांबर में श्वेत+अंबर, दिगंबर में दिग्+अंबर, ये दो शब्द मिलकर इन शब्दों का भावार्थ बनते हैं । इसी प्रकार भक्तामर का अर्थ है- कभी न मरने वाला भक्त अर्थात स्वयं भगवान । अर्थात जो प्रभु की भक्ति करता है वह अमर हो जाता है । अब प्रश्न उठता है की भक्ति क्यों करना ? भक्ति करने के पीछे हमारी भावना रहती हैं कि इसके बाद नरक आदि अधोगति में नहीं जाना पड़ेगा, जहां भयंकर गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास आदि की वेदना है । किंतु प्रभु महावीर की अहिंसा कहती है कि चींटी पर भी पांव नहीं रखना क्योंकि एक चींटी को मारना भी स्वयं को मारने जैसा है । जैन दर्शन *आत्मावत् सर्वभूतेषु* अर्थात सभी को अपनी आत्मा के समान समझता है। जिसमें डर नहीं, लोभ नहीं, वही सच्ची भक्ति कर सकता है ।

प्रभु श्री कृष्ण ने चार प्रकार के भक्त बताएं हैं – पहले भक्त है आर्तो अर्थात जो दुख या कष्ट आने पर प्रभु की भक्ति करें । दूसरा भक्त है जिज्ञासु, जो जिज्ञासावश प्रभु की भक्ति करें । तीसरा भक्त है अर्थाअर्थी, जो अर्थ यानी धन कमाने के लिए, समृद्धि पाने के लिए, वैभव पाने के लिए प्रभु की भक्ति करें और चौथी प्रकार का भक्त है ज्ञानी । ज्ञानी, जो विवेकपूर्वक, ज्ञानपूर्वक कर्मों की निर्जरा करने के लिए भक्ति का आलंबन लेता है । हमें चौथे प्रकार का ज्ञानी भक्त बनना है, तभी हम अपने जीवन को कल्याण के मार्ग पर प्रशस्त कर सकेंगे ।

प्रवचन के पश्चात सभा का कुशल संचालन संघ के अध्यक्ष श्री राजेश भाई मेहता ने किया ।

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