तेजस और कार्मण शरीर हैं संसारी आत्मा के सच्चे मित्र
साध्वी प्रमुखाश्री ने कहा नहीं करे पाण्डित्य का अभिमान
माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के ग्यारहवें श्लोक के तीसरे विभाग का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि सर्व जीवों को शरीर के आधार पर छ: विभागों में बांटा गया हैं| शरीर क्या है? जिसका क्षरण होता है, जो गलता है, सड़ता है और जो सुख दुःख के अनुभव का साधन हैं| शरीर पांच होते हैं| पर यह नियम मात्र औदारिक शरीर पर ही लागू होता है, बाकी पर लागू नही होता| साता – असाता का अनुभव शरीर को होता हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि शरीर आत्मा से जुड़ा हुआ हैं| पांचों शरीर का अपना – अपना स्वभाव हैं| औदारिक शरीर में रहने वाली आत्मा ही केवलज्ञान को प्राप्त कर मोक्षगामी बन सकती हैं| औदारिक शरीर में हाड, मांस होता है, पर यह सब पर लागू नही होता| स्थावर जीवों के औदारिक शरीर नहीं होता है, पर माना जा सकता हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि वैक्रिय शरीर वाला अपनी अवगाहना छोटी, बड़ी बना सकता हैं| मृत्यु के समय औदारिक शरीर ही रहता है, वैक्रिय शरीर कपूर की भांति उड़ जाता हैं| वैक्रिय शरीर मूलत: देवता और नारकीय जीवों के होता हैं, पर औदारिक शरीर वाला विशेष साधना से वैक्रिय लब्धि को प्राप्त कर,, वैक्रिय शरीर बना सकता हैं| वैक्रिय शरीर से केवलज्ञान नहीं होता हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया किआहारक शरीर विशिष्टता का शरीर हैं| यह विशिष्ट योगी, चौदह पूर्व धारी साधु को हो सकता हैं| तेजस शरीर पाचन शक्ति का साधन हैं, सहायक हैं| लब्धि के रूप में तेजस शरीर का भी उपयोग होता हैं| कार्मण शरीर कर्मों का बन्धा हुआ पिंडी रूप हैं, इसे कर्मक शरीर भी कहते हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि संसारी जीवों के कम से कम दो शरीर तो होते ही हैं| जीव की आत्मा एक गति से दूसरी गति में जाने के समय (अन्तराल गति) तेजस और कार्मण दो शरीर ही होते हैं| पर निश्चय में संसारी जीवों के तीन शरीर तो होते ही हैं| तेजस और कर्मण शरीर संसारी आत्मा के सच्चे मित्र हैं, ये छूटते नहीं है, पर छूटने के बाद आत्मा मोक्ष में चली जाती हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि इन पांच शरीर के सिवाय छठा विभाग हैं, अशरीरी का, जो सिद्ध आत्माओं के होता हैं| अशरीरी पूर्णतया अकेले रहते हैं| कार्मण योग की स्थिति में कार्मण शरीर रहता हैं| अंतराल गति में तेजस और कार्मण दोनों रहते हैं, पहला तेजस शरीर हैं, अत: तेजस शरीर मान लिया जाता हैं| संसारी जीवों के औदारिक, तेजस, कार्मण तीनों होते हैं, पर इसमें औदारिक शरीर को मुख्य मान लिया गया हैं| देवता और नारकीय जीवों के वैक्रिय, तेजस और कार्मण शरीर होते हैं, पर वैक्रिय को प्रधान मान लिया गया हैं| जहाँ जो शरीर प्रधान है, वे उस शरीर के कहलाते हैं|
शरीर अशाश्वत, आत्मा शाश्वत
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि शरीर और आत्मा का योग हैं| शरीर अशाश्वत हैं, आत्मा शाश्वत हैं| अभवी जीवों के तो तेजस और कार्मण शरीर हमेशा ही रहेंगे| भवी जीवों का शरीर से मुक्त्व कभी न कभी हो सकता हैं| हम शरीर मुक्त विदेह अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास करें| आध्यात्म की साधना का मूल लक्ष्य है, मोक्ष की प्राप्ति|
जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संस्कार निर्माण शिविर के संभागी शिविरार्थीयोंसे पूज्य प्रवर ने प्रश्नोत्तर किये, और आचार्य प्रवर ने सही समाधान भी दिया| ऊँ शब्द का जैन परम्परा के हिसाब से विश्लेषण करते हुए पंच परमेष्ठी का आधार बताया|
नहीं करे पाण्डित्य का अभिमान : साध्वी प्रमुखाश्री
साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा ने कहा कि यह एक विद्वता की बात है कि प्रश्नकर्ता के प्रश्न का उत्तर समझ में नहीं आये तो, जो अर्द्ध पण्डित होते हैं, थोड़े से ज्ञान को लेकर पाण्डित्य का अभिमान करते हैं, वे सही गलत तरीके से सिद्ध करना चाहते हैं, लेकिन जो वास्तव में पण्डित होते हैं, विद्वान होते हैं, वे समय पर अपना असामर्थ्य भी स्वीकार कर लेते हैं|
साध्वी श्री ने आगे कहा कि श्रावक गुरू की, चारित्रात्माओं की अच्छी उपासना करते हैं| जिनके मन में धर्म की लगन होती हैं, उनकी यही अभिलाषा होती हैं, कि हम संसार में भटक रहे हैं, हमारा संसार का भटकाव कम हो, हमें आध्यात्मिक ज्ञान मिले| श्रीमती साधना श्रीश्रीमाल ने आचार्य प्रवर के श्रीमुख से 21 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया| कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार ने किया|
*✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*
स्वरूप चन्द दाँती
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति