माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के बीसवें श्लोक के उतराद्ध भाग का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि मनुष्य के छह भूमीयों में पैदा होने के हिसाब से छह प्रकार बताएं गये हैं| मूलत: दो प्रकार हैं – समूर्च्छिम और गर्भज| सामान्य भाषा में संज्ञी और असंज्ञी कहते हैं|
असंज्ञी मनुष्य, संज्ञी मनुष्यों का उत्पाद
आचार्य श्री आगे कहा कि जिसमें मन होता हैं, वह संज्ञी होता हैं| अतीत की स्मृति, वर्तमान का चिन्तन और भविष्य की कल्पना मन के द्वारा ही होती हैं| असंज्ञी के मन नहीं होता, वे अतिसूक्ष्म होते हैं| चींटी, मकोड़े तो हम आँखों से देख सकते हैं, लेकिन असंज्ञी प्राणी को हम आँखों से नहीं देख सकते| असंज्ञी मनुष्य, संज्ञी मनुष्यों का ही उत्पाद हैं, वे हमारे मल, मूत्र, रक्त इत्यादि चौदह स्थानों से पैदा होते हैं, अविकसित होते हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जैसे दो भाई होते हैं, एक बुद्धिमान हैं, सक्षम हैं, क्षमतावान हैं, कर्मठ हैं, समझदार हैं| दूसरा अविकसित है, विकलांग है, न बोलता है, न चलता है, न ही अपना काम स्वयं कर सकता हैं, फिर भी भाई कहलाता हैं| माता पिता उसकी सेवा करते हैं| उसी तरह अविकसित होते हुए भी, संज्ञी मनुष्यों की संतान होने के कारण, उन्हें असंज्ञी मनुष्य कहते हैं|
जैन भुगोल के आधार पर 101 भूमीयों का विवेचन करते हुए आचार्य श्री ने आगे कहा कि 15 कर्म भूमीयों में पैदा होने वाला मनुष्य ही साधना कर सकता हैं, साधु बन सकता हैं, केवलज्ञानी बन सकता हैं, सिद्ध, बुद्ध मुक्त बन सकता हैं|
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आचार्य श्री ने विशेष प्रेरणा देते हुए जनमेदनी को संबोधित करते हुए कहा कि हम लोग विकसित प्राणी हैं| विकसित वह होता हैं, जिसमें मन होता हैं| हम सौभाग्यशाली हैं कि संज्ञी मनुष्य हैं और कर्मभूमी में पैदा हुए हैं| हम संज्ञी मनुष्य हैं, हमारा शरीर भी स्वस्थ हैं, धर्म की बात समझ सकते हैं|तिर्यंच भी श्रावक बन सकता हैं, ग्यारह व्रतों को स्वीकार कर, संथारा कर सकता हैं, पांचवें गुणस्थान में आकर प्रत्याख्यान कर अपना कल्याण कर सकता हैं|
अपनी शक्ति को धर्मध्यान में, साधना में, करे नियोजित
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हम संज्ञी मनुष्य हैं, हमारे में चिन्तन की क्षमता हैं, तो हमें चिंतन करना चाहिए, कि मैं आगे के लिए क्या कर रहा हूँ? शरीर में कब बिमारी आ जाएं? आज मेरा शरीर सक्षम है, आज मैं बोल सकता हूँ, भाग-दौड़ कर सकता हूँ, काम कर सकता हूँ, सेवा दे सकता हूँ, अनेक काम कर सकता हूँ| तो मैं अपने शरीर का बढ़िया उपयोग करू| अपनी शक्ति को धर्मध्यान में, साधना में, नियोजन करूं| बाद के भरोसे नहीं रहूं| बाद का क्या भरोसा? आज मैं स्वस्थ हूँ, जो कुछ कर सकू आज से ही करू|
आचार्य श्री ने आगे कहा संवर और निर्जरा की साधना करें| सामायिक, पौषध, सम्यक्त्वी बन के और भी प्रत्याख्यान करते हैं, बारह व्रतों की स्वीकार करने से सम्यक्त्व संवर और साथ में देशव्रत संवर की साधना हो जाती हैं| श्रावक के आंशिक विरति होती हैं, थोड़ा त्याग होता हैं, जबकि साधु पूर्ण विरति होता हैं| साधु सर्व सावध योग का तीन करण, तीन योग से यावज्जीवन के लिए त्याग कर लेता हैं, साधुपन पाल लेता हैं|
धार्मिक संदर्भों में, श्रावक भी अच्छा
आचार्य श्री ने आगे कहा कि धार्मिक संदर्भों में श्रावक भी अच्छा हैं, क्योंकि उसके जितना संयम है, धर्म हैं, उसकी अपेक्षा से वह सुपात्र है, अच्छा हैं| जितना जितना अत्याग हैं, खुलावट हैं, उसकी अपेक्षा से वह सुपात्र नहीं हैं| तो हम संज्ञी मनुष्य हैं, तो अपनी संज्ञा, चिंतन, विचारणा का उपयोग करके, धर्म की दृष्टि से, अध्यात्म की दृष्टि से आगे बढ़ने का प्रयास करें, यह अभिदर्शनीय हैं|
साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा ने कालू यशोविलास का सुन्दर विवेचन किया|
तप गंगा की बह रही अविचल धारा
परमाराध्य आचार्य प्रवर के चेन्नई चातुर्मास प्रवेश से ही तप की गंगा निरन्तर बह रही हैं| श्रावण, भाद्रपद और आसोज महीने की सम्पन्नता पर भी तपस्वी तप गंगा में निरन्तर गतिशील हैं| आज इस चातुर्मास काल के 55वें मासखमण के रूप में श्री यशवंत नाग सेठिया ने 33 की तपस्या और मंगलवार के लिए 34 की तपस्या का पूज्य प्रवर के श्रीमुख से प्रत्याख्यान किया| सारे महाश्रमण समवसरण ने “ऊँ अर्हम्” की ध्वनि से तपस्वी का वर्धापन किया| कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार ने किया|
*✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति