चेन्नई. मन को स्थिर और शांत बनाने के लिए ध्यान की आवश्यकता है। जहां संसार के कार्यों में मन लगता है, उसी मन को प्रभु भक्ति में लगाकर धार्मिक कार्यों में संलग्न करेंगे तो परमात्मा से मिलन हो जाएगा। जीवन चेतना दर्पण की तरह होनी चाहिए। दर्पण सदा रिक्त रहता है, उस पर स्थायी तस्वीर नहीं बनती। प्रतिबिंब हटते ही दर्पण शून्य हो जाता है।
अयनावरम स्थित दादावाड़ी में विराजित साध्वी महाप्रज्ञा ने कहा मन बड़ा चंचल होता है। मन इतना चंचल होता है कि इस पल यहां तो अगले पल किसी दूसरी जगह चला जाता है। एक अलग ही दुनिया में घूमकर आ जाता है। संसार में व्यक्ति मन के वशीभूत ही रहता है जिसके कारण उसे दुखों का सामना करना पड़ता है। व्यक्ति अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण इतना दुखी नहीं है जितना मन के कारण है। मन हमेशा इस खोज में लगा रहता है कि दूसरा मुझसे बेहतर और खुश क्यों है।
साध्वी राजकीर्ति ने कहा पुण्य की प्राप्ति से पुणवाणी को आगे बढाने का साहस करने का उपाय धर्म है। जब तक धर्म नहीं करेंगे, तब तक अशुभ कर्मों का क्षय नहीं हो सकता। अशुभ कर्मों को क्षय करके की सुख की प्राप्ति हो सकती है। जब तन्मयता के साथ स्वार्थ रहित धर्म किया जाता है तो वही धर्म कर्म पुण्य का उपार्जन करते हुए कर्मों का क्षय करने में सहायक बनकर मोक्ष मंजिल के मार्ग पर अग्रसर होता है।