साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन विराजित मुनिगण संयमरत्न विजय व भुवनरत्न विजय के सान्निध्य में मासखमण, सिद्धि तप, भक्तामर तप आदि तपश्चर्या के निमित्त त्रिदिवसीय महोत्सव के दौरान रविवार को भक्तामर महापूजन का आयोजन हुआ। मुनि ने इस मौके पर कहा भक्त को अमर बना देता है भक्तामर।
धार (म.प्र.) के राजा भोज ने जिनशासन का प्रभाव जानने के लिए आचार्य मानतुंगसूरी को चौवालीस बेडिय़ों में जकड़ दिया था। आचार्य ने भक्तामर स्तोत्र का एक-एक श्लोक बोलते गये और बेडिय़ां टूटती गई। चौवालीस श्लोक पूरे होते ही सारी बेडिय़ां टूट गई। राजा भी आचार्य एवं जैन धर्म से प्रभावित हुआ। भक्तामर स्तोत्र का प्रभाव आज भी चारों ओर विद्यमान है। यह स्तोत्र सर्वरसों से पूर्ण व बंधनों का चूर्ण करने में परिपूर्ण है। यह श्वेताम्बर व दिगंबर दोनों परम्पराओं में सर्वमान्य व सर्वग्राह्य स्तोत्र है।
भक्तामर के 41वें श्लोक के प्रभाव से दीक्षा लेने से पूर्व आचार्य जयन्तसेनसूरी का भयंकर पेटदर्द समाप्त हो गया था। भक्त का किसी विषय में ममत्व नहीं होता। उसका सारा ममत्व-समत्व व महत्व एक मात्र अपने प्राणाराध्य परमात्मा में होता है। तपस्वी को शारीरिक, ज्ञानी को बौद्धिक व दानी को धन की शक्ति चाहिए, किंतु भक्त बनने के मात्र भक्ति की शक्ति चाहिए। भक्ति में ही मुक्ति का आकर्षण है।
मुक्ति प्राप्ति हेतु भक्ति योग ही सरल-सहज व सर्वश्रेष्ठ उपयोग है। प्रभु के दास की समस्त दुनिया दास होती है। प्रभु का दास बनने में जो आनंद है, उस आनंद के समक्ष तो तख्त-ताज, राज-काज, वैभव भी फंद व द्वंद्व के समान है।