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ज्ञान वाणी

बाह्य भ्रमणता समाप्त होने पर ही होती है आत्मरमणता: संयमरत्न विजय

बाह्य भ्रमणता समाप्त होने पर ही होती है आत्मरमणता: संयमरत्न विजय

चेन्नई. राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय व भुवनरत्न विजय ने कहा द्रुम पत्रक के अनुसार प्राणी का जीवन ओस की बूंद व वृक्ष के पीले पत्ते की तरह क्षणभंगुर है। जब व्यक्ति जहर को जहर समझने लग जाता है, तब उसे जहर से बचे रहने की सीख देने की आवश्यकता नहीं रहती। बहुश्रुत पूजा में कहा गया है कि विनम्र सुशील हो, व्यर्थ की चर्चाओं में अपना समय बर्बाद नहीं करता हो, अधिक हंसी मजाक न करता हो, अपशब्द नहीं बोलता हो, अपनी विद्वत्ता पर अहंकार नहीं करता हो, अभद्र व्यवहार से दूर रहता हो, वही बहुश्रुत यानि शिक्षा धारण करने योग्य बनता है। हरिकेशीय अध्ययनानुसार साधना के लिए किसी जाति विशेष में उत्पन्न होने की आवश्यकता नहीं रहती।

 

आवश्यकता है हमारे भीतर गुणों का विकास करने की। गुणों से ही व्यक्ति जगत में पूजनीय बनता है।चित्त सम्भूतीय के अनुसार जीव को कभी भी अपनी आराधना, साधना के बदले भौतिक सुख की कामना नहीं करना चाहिए। अपेक्षा रहित साधना ही साधक को साध्य तक पहुँचाती है। इषुकारीय के अध्ययनानुसार एक भव से दूसरे भव तक हमारे संस्कार ही हमारे साथ चलते हैं।

सुसंस्कारों से सद्गति और कुसंस्कारों से हमारी दुर्गति होती है। सभिक्षुक अध्ययनानुसार जो घर-घर से भिक्षा-भोजन की याचना करके अपनी साधना करता है, वह भिक्षुक,साधु कहलाता है। ब्रह्मचर्य समाधि में कहा गया है आत्मा की सर्वोच्च स्थिति में विचरण करना ही ब्रह्मचर्य है। बाह्य भ्रमणता का भाव समाप्त होने पर ही आत्मरमणता के भाव स्थिर होते हैं।

पाप श्रमणीय अध्ययनानुसार जो सुविधावादी एवं सुविधाभोगी बनकर साधना सरिता के तट को तोडक़र स्वेच्छाचारी बन जाता है,वह पाप श्रमण कहलाता है। संयतीय अध्ययनानुसार मन और इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला साधक संयति होता है। यदि हम निर्भय बनना चाहते हैं तो दूसरे प्राणियों को भी अभय दान देकर निर्भय बनाने का प्रयास करें।

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