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ज्ञान वाणी

पूज्य मुनिश्री अरिजीत सागरजी की मंगल देशना की प्रमुख बिंधुएँ

पूज्य मुनिश्री अरिजीत सागरजी की मंगल देशना की प्रमुख बिंधुएँ

भगवन बनने की कोशिश में गुरुदेव अरिजित सागरजी प्रवचन क्रम को आगे बढ़ाते हुए आज कहते हैं कि अंतरंग तप का सीधा मतलब है आत्मा को तपाना। दूसरे अर्थ में कहे तोआत्मा का शोदन करना ही अंतरंग तप है। इस संधर्भ का सीधा मतलब प्रायश्चित से है। जिसमे हमसे किये हुए दोषों को अपने गुरु के पास जाकर, दोषों को बताकर प्रायश्चित लेना है। किये हुए दोषों को अपने से पृथक करना ही अंतरंग तप है।

मोक्ष मार्ग में रहते हुए गलती कर बैठते हैं। जिसकी वज़ह से अंदर एक ठीस रह जाती है। उस कारण चित्त विशुद्ध नहीं हो पाता। परिणाम स्वरुप किसी भी धर्म कार्य में मन नहीं लगता है। आगे शुभ और अशुभ की तुलना कर बताते हैं कि जिस धर्म क्रिया को करने के बाद ख़ुशी मिलती है तो वह शुभ कार्य है।

गुरुदेव और रौशनी डालते हुए कहते हैं गलती करने के बाद मन गलती मान लें तो आत्मा साफ हो जाती है।इससे आत्मा का बचाव होता है। गुरुदेव आगे स्पष्टता प्रदान करते हुए बता रहे है कि धर्म क्षेत्र में कभी परिणाम को ख़राब मत करो।जब यह जीव,इस मान को गलाकर गलती मान ले तो आत्मा को विशुद्धता की और ले जायेगा।

आत्म कल्याण के रास्ते में सफल होने के लिये अंतरंग तप अनिवार्य है। कषाय को त्यागकर आगे बढ़ेंगे तो ही शिव् पथ को प्राप्त कर पाएंगे। “मिच्छामि दुखडम” को हमेशा ध्यान रखकर श्रद्धा पूर्वक अपनाना चाहिए।तभी इस तप को सफल कर सकेंगे।

आगे विनय तप के बारे में समझा रहे कि प्रत्यक्ष रूप में साधुओं की, देव शास्त्र गुरुवों की विनय तो करते ही हैं लेकिन परोक्ष विनय का ध्यान रखना बहुत जरूरी है। साधुओं के बीच में न रहते हुए भी उनका आदर-सत्कार भाव रखना ही सदाचार है।

अंतरंग तप से ही भगवान बन सकते है। पुंनः समय की कमी के कारण गुरुदेव ने अपने प्रवचन को विराम दिया। नमोस्तु शाशन जयवंत हो। इसी मंगल भावना के साथ कल मिलेंगे।
-प्रेम कासलीवाल-

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