वेपेरी स्थित जयवाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा आत्मा का स्वभाव उर्ध्वगामी होना है। लेकिन पाप कर्मों से भारी होने के कारण आत्मा दुर्गतिओं में जाती है। पाप कर्म जीव को पतन की ओर ले जाते हैं।
संसार में पाप के निमित्त ज्यादा होते हैं इसीलिए सावधान रहना चाहिए । जिस प्रकार स्थान, घर, कपड़े को स्वच्छ रखने का प्रयास किया जाता है, उसी प्रकार आत्मा को भी स्वच्छ बनाने का प्रयास करना चाहिए। दांतो के बीच जीभ जैसे सुरक्षित रह सकती है, उसी प्रकार जीव चाहे तो पापों से बचा सकता है।
मुनि ने श्रावक के छठे गुण पाप भीरू का वर्णन करते हुए कहा पाप से डरने वाला ही पंडित होता है। पाप के प्रति भय ना होने पर व्यक्ति ओर ज्यादा पापों में अग्रसर हो जाता है। पाप का फल भयंकर होता है जिससे बचने के लिए अनावश्यक पापों का सेवन नहीं करना चाहिए। छोटे पाप ही एक दिन बड़े पाप का रूप धारण करते हैं ।
इसीलिए पाप चाहे छोटा हो या बड़ा उसे से बचना चाहिए। व्यक्ति की यह भ्रांति रहती है एकांत में किए गए पापों को कोई नहीं देख पाता लेकिन अपनी आत्मा से और परमात्मा से कोई भी चीज छुपी हुई नहीं रह सकती ।
मुनि ने कहा उल्लू दिन में अंधा होता है और कौआ रात में अंधा होता है, लेकिन कमांद व्यक्ति दिन और रात अंधा रहता है। कामवासना से किसी को तृप्ति नहीं हो सकती। मुनि वृंद के सानिध्य में 86 श्राविकओं के द्वारा 24 तीर्थंकर साधना गतिमान है।