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ज्ञान वाणी

त्यागी-वैरागी-अध्यात्मयोगी थे विश्व पूज्य राजेन्द्रसूरि जी:

त्यागी-वैरागी-अध्यात्मयोगी थे विश्व पूज्य राजेन्द्रसूरि जी:

राजमहेन्द्री के निकट आया श्री गुम्मीलेरु तीर्थ में आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी के सुशिष्य मुनि श्री संयमरत्न विजयजी,मुनि श्री भुवनरत्न विजयजी ने के सान्निध्य में गुरु सप्तमी महोत्सव मनाया गया।मुनि श्री ने कहा कि गुरु शब्द छोटा है,पर इसका अर्थ बहुत बड़ा,विशाल,विराट है।’गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है अंधकार को रोकने वाला,अर्थात् जो अज्ञान अंधेरे को रोककर हमारे जीवन को ज्ञान प्रकाश से आलोकित कर देता है,वही गुरु होता है।

18-19 वीं शती में ही ऐसे विराट गुरु का अवतरण हुआ,जिनका प्रभाव उनके स्वर्गारोहण के 112 वर्ष बीत जाने पर आज भी वैसा ही है और दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है। राजेन्द्रसूरि जी का जन्म वि.सं. 1983 पोष सुदी-7 को ऋषभदासजी की धर्मपत्नी केशरबाई की कुक्षी से हुआ| आपका नाम रत्नराज रखा गया|

जिनके एक बड़े भाई माणिकचंदजी, दो बहने – प्रेमा,गंगा थी| माता-पिता के देवलोकगमन के बाद उनका मन घर में नहीं लग रहा था,उन्हीं दिनों भरतपुर में प्रमोदसूरिजी पधारे,जिनके व्याख्यान के प्रभाव से संसार की वास्तविकता समझी और संसार के प्रति वैराग्यवासित बने।वैराग्य अति दृढ़ होने लगा तो समय देखकर बड़े भाई माणिकचंद से अपनी भावना कही। माणिकचन्दजी ने आपकी दृढ़ता को देखकर संयम लेने की स्वीकृति प्रदान। स्वजनों के संग उदयपुर में आचार्य प्रमोदसूरिजी के पास पहुंचे।

भरतपुर पधारने की विनंती की। आचार्यश्री ने कहा ”अभी क्षेत्र स्पर्शना नहीं है|” लेकिन रत्नराज का मन जल्दी दीक्षा लेने का था, इसलिए वि.सं. 1904 को 20 वर्ष की उम्र में वैशाख सुदी-पंचमी के दिन दीक्षा ग्रहण की और रत्नविजयजी नाम रखा। अध्ययन के लिए खरतरगच्छ के विद्वान मुनि सागर चन्द्रजी के पास भेजा। 5 वर्ष तक एकाग्रतापूर्वक अध्ययन किया,तीव्र बुद्धि के स्वामी होने से इन्होनें व्याकरण, काव्य,कोष,अलंकार, न्यायदर्शन आदि उच्च कोटि के ग्रंथो का अध्ययन किया|

सं. 1901 के वैशाख सुदी-3 (अक्षय तृतीया) के दिन आपकी बड़ी दीक्षा हुई | आचार्य प्रमोदसूरिजी और देवेन्द्रसूरिजी ने उन्हें पंडित पद से अलंकृत किया और पूज्यश्री ने अपने पास रखकर विधिपूर्वक आगम पंचांगी का अध्ययन करवाया।अध्ययन समाप्त होने पर पंन्यास पद से अलंकृत किया, फिर देवेन्द्रसूरिजी के सानिध्य में सं.1911 का चातुर्मास पाली में,1912 का जोधपुर और 1913 का किशनगढ़ में किये।

इसके बाद घाणेराव में धरणेन्द्रसूरिजी ने इनकी कार्यकुशलता देख दफ्तरी पद से सुशोभित किया।साधुओं में आए शिथिलाचार के कारण वे बड़े व्यथित रहते थे।एक दिन अरब देश का इत्र व्यापारी वहां आया,उसने अनेक प्रकार के इत्र धरणेन्द्रसूरिजी को बताए।पूज्यश्री ने थोड़ा सा इत्र रत्नविजय जी के वस्त्र पर लगाया और एक शीशी देते हुए कहा की कितना सुगंधित इत्र है| उसी समय रत्नविजय जी ने कह दिया “गधे के मूत्र और इत्र में कोई अंतर नहीं।आप श्री को यह शोभा नहीं देता,हमें अपनी मर्यादा में रहकर निंदित कार्यो से बचना चाहिए। गंभीरता और शांत चित्त से सोचकर आपने कहा कि “मेरा विचार शुद्ध साध्वाचार और क्रियोद्धार करने का है।

ऐसा कहकर कुछ यतियों के साथ वे  नाडोल आ गए।चातुर्मास पूर्ण कर आहोर में बिराजित प्रमोदसूरिजी के पास पहुंचे|प्रमोदसूरिजी ने उनकी योग्यता देखकर सं.1924 की वैशाख सुदी-5 के दिन आचार्य पद प्रदान किय।आपका नया नाम आचार्यश्रीराजेन्द्रसूरिजी दिया गया। आहोर के ठाकुर यशवंतसिंह ने उन्हें छत्र-चामर,पालकी,स्वर्ण दंड,सूर्यमुखी-चंद्रमुखी और दुशाला भेंट किये। आहोर से विहार कर जावरा पहुंचे,जहां वि.सं. 1924 का चातुर्मास करके सं. 1925 में क्रियोद्धार किया।जालोर जिले के मोदरा गाँव के समीप चामुंडा वन में गुरुदेव श्री आठ-आठ उपवास से तप प्रारंभ किया।

कभी धग-धगती शिला पर, कभी नदी की गर्म रेत पर तो कभी सर्दियों में एक ही वस्त्र में खड़े-खड़े तपस्या करते थे। समाधियोग से आत्मबल को विकसित किया|जालोर शहर में स्थित स्वर्णगिरि तीर्थ पर कुमारपाल महाराजा द्वारा निर्मित मंदिरों में गोला-बारुद,अस्त्र-शस्त्र आदि भरे पड़े थे। सं.1933 का चातुर्मास जालोर में किया और अपनी साधना के प्रभाव से  जोधपुर नरेश को प्रभावित किया।जोधपुर नरेश ने तुरंत ही मंदिरों का अधिकार आपको दे दिया,वहां से शस्त्रादि,बारूद हटाकर जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई।

सं.1955 ,फाल्गुण वदी- 5 के दिन आहोर के श्री गोड़ीजी 52 जिनालय में 151 छोटे-बड़े जिनबिम्बों की महा अंजनशलाका आपके करकमलों से संपन्न हुई। लगभग 250 वर्षों से बहिष्कृत चिरोला वासियों को गुरुदेव श्री के उपदेश से श्रीसंघ ने उन्हें समाज में सम्मिलित किया।सियाणा में वि.सं. 1956 आसोज सुदी-2 को अभिधान राजेन्द्र कोष का लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ, जो सूरत में वि.सं.1960 चैत्र सुदी- 13 को पूर्ण हुआ| जब बृहद्कोष का लेखन कार्य प्रारम्भ किया, उस समय आपकी उम्र 63 वर्ष की थी।

कोष का लेखन कार्य पूर्ण होने में कुल 4862 दिन यानी 13 वर्ष,6 माह और 3 दिन लगे| अल्प अवधि में इतने विराट एवं विशाल कोष का निर्माण इस शताब्दी की अद्भुत उपलब्धि है| इस कोष के ७ भाग है| इसमें 10,000 सुपर रॉयल साइज के पेज है, 10,000 शब्द है, साढ़े चार लाख श्लोक और सूत्र है|

सं.1963 की पौष सुदी-7 के दिन ही विश्वपूज्य राजेन्द्रसूरि जी ने तीन का अनशन लेकर राजगढ़(म.प्र.)में समाधिपूर्वक नश्वर देह का त्याग किया और खेड़ा गांव में अंतिम संस्कार हुआ,वही छोटा सा खेड़ा गाँव दादा गुरुदेव श्री के प्रभाव से मोहनखेड़ा तीर्थ के रूप में विश्वविख्यात है।मुनिद्वय श्री ने गुरु सप्तमी की दोपहर को काकीनाड़ा की ओर विहार किया।

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