चेन्नई. शुक्रवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर, पुरुषावाक्कम, चेन्नई में चातुर्मासार्थ विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि महाराज एवं तीर्थेशऋषि महाराज के प्रवचन का कार्यक्रम आयोजित किया गया। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रैक्टिकल लाइफ में कहा कि शक्ति और ज्ञान का संबंध जोडऩे के बारे में बताया।
जब तक एक-दूसरे को देखकर खुशी हो तो प्यार बढ़ता रहता है लेकिन जब यह रुक जाती है तो सामने वाले की एनर्जी भी उसी प्रकार का व्यवहार करना शुरू कर देती है। यह प्रमाद और सबसे बड़ा पाप है। और जब देखकर गुस्सा आता है तो दुश्मनी बढ़ती जाती है। पूरी एनर्जी के साथ नफरत होने लगती है।
जहां एनर्जी जाग्रत होगी वही डवलपमेंट होगा और जहां नहीं होगी वो डेमेज होगा। आपकी श्रद्धा और प्रेम वैसे-वैसे ही बढ़ता जाता है। हम इसे अनदेखा करके स्वयं की एनर्जी पर ताला लगा देते हैं और सामने वाले की एनर्जी भी रूक जाती है। जिस कारण से खुशी पर रोक लगी उस कारण का समाधान कर देने से दोनों की खुशी का रास्ते खुल जाते हैं और आपसी प्रेम बढ़ता है। यदि धर्मकार्य करते हुए स्वयं वह खुशी की अनुभूति हो जाए तो आपकी साधना सफल हो जाएगी। मन तभी भटकेगा जब खुशी नहीं होती।
आत्मा का दूसरा तत्व श्रद्धा का जागरण करना है तो जिनके प्रति आपका लगाव है उन्हें देखते ही झूम जाएं, खुश हो जाएं। इसमें अवरोध आते ही आपसी प्रेम कम होता जाएगा और वही धीरे-धीरे नफरत में बदलते हुए दुश्मनी तक चला जाता है, कमियां निकलती ही जाती है। जिस श्रद्धा, उल्लास के साथ धर्म कार्य करना शुरू करें तो उसे बनाएं रखें, कम न होने दें, गर्त में गिरते देर नहीं लगती। शक्ति का सूत्र है- उल्लास, आनन्द, उमंग, प्रसन्नता, श्रद्धा। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि बड़ों का अभिवादन और अपने से छोटों का धन्यवाद करना चाहिए।
क्षमा मांगते हुए, धन्यवाद देते हुए, और प्रेम दर्शाते हुए कभी देर न करें। क्षमापना से प्रहलाद भाव का जन्म होता है, यह दोनों के लिए कल्याणकारी है। इन्द्रभूति गौतम परमात्मा से लडऩे के लिए आया लेकिन उनसे प्रेम और अपनत्व पाकर वह उनका बन गया।
हमेशा स्वयं के सही कार्य करने की खुशी मनाओ, चाहे कोई धन्यवाद दे या न दे। जिस समय आप कुछ नहीं करते उस समय मुस्कुराएं जरूर। हमेशा जिंदादिल बनकर रहें। जब खुशी में रहते हो तो आत्मा की शक्ति का जागरण हो जाएगा। अपने जीवन में आस्था, समर्पण, और प्रेम को बनाए रखें।

भक्तामर की यात्रा में बताया कि आचार्य मानतुंग ने परमात्मा की भक्ति में डूबते हुए ज्ञान के तत्त्व को उजागर किया है। जिसके प्राप्त होने के बाद करने को कुछ भी बाकी शेष नहीं रह जाता, वह ज्ञान है। तीर्थंकर परमात्मा को जब तक केवलज्ञान नहीं होता तब तक वे अनेकों जीवों को स्वयं संभालते हैं लेकिन केवलज्ञान के बाद उनका ज्ञान और उनकी आभा मण्डल ही सभी कार्यों को संपादित कर देता है। उन्हें हाथ उठाकर आशीर्वाद देने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उनके तो रोम-रोम निरंतर और सहज ही सभी को आशीर्वाद देते ही रहते हैं। इसलिए जो भी परमात्मा के साथ जुड़ता है वह स्वयं परमात्मा बन जाता है।
आचार्य मानतुंग कहते हैं कि हे परमात्मा आपका ज्ञान इतना परिपूर्ण है कि और कहीं ऐसा ज्ञान नजर नहीं आता, यह सर्व कार्य सिद्धि करने वाला है और इसकी प्राप्ति के बाद सांसारिक वस्तुएं हीरे के सामने कांच के टुकड़ों जैसी तुच्छ प्रतीत होती हैं।
हे परमात्मा इस संसार में दर-दर की ठोकरें खाने के बाद आप प्राप्त हुए तभी मुझे आपकी कीमत पता चली है। यदि सहज ही मुझे आप प्राप्त हो जाते तो मैं आपकी कीमत समझ ही नहीं पाता। जो बिना मेहनत किए कुछ प्राप्त करता है वह उसे व्यर्थ गंवाता है और जो मेहनत करके कमाता है उसे उसका महत्व मालूम होता है, वह उसे बेकार नहीं गंवाता।
परमात्मा की साधना को उनकी माता की उपमा देते हुए आचार्य मानतुंग कहते हैं कि आपकी जिस साधना से तीर्थंकर नामकर्म का जन्म हुआ है वह सूर्योदय की पूरब दिशा के समान है। माता से तो केवल भौतिक शरीर जन्मता है लेकिन जिस माता यानि साधना और तपस्या से आपने २० बोलों की आराधना की है उससे तो सारे ब्रह्मांड में ज्ञान का उजियारा फैला हुआ है।
आपसे किसी को बोध, ज्ञान, समझ मिल जाए तो वह मृत्यु को जीत ही लेता है, इसके अलावा कल्याण का अन्य रास्ता है ही नहीं। जिस प्रकार सूर्योदय पूरब दिशा से ही होता है उसी प्रकार परमात्मा बनने की कला तो आपसे ही प्राप्त की जा सकती है, आपसे मंत्र से ही मोक्ष में जाया जा सकता है। इस प्रकार मुनिजन परमात्मा को आदित्य पुरुष के रूप में देखते हैं। चंडकोशिक को कोई भी मार सकता था लेकिन उसके कषायों को तो महावीर ही मिटा सके। आपसे मिली समकित मृत्युंजय बनाता है। यह समकित हमें आपसे ही चाहिए।
भक्तामर में कहा गया है कि तीर्थंकर की भक्ति बहुत आसान है। उन्हें बदले में कुछ भी नहीं चाहिए, वे तो एकमात्र दाता हैं। मुनिजन आपको आदित्य और संत आपको अव्यय और विभू रूप में देखते हैं। आपकी आत्मा सिद्धशीला में है, लेकिन आपके तीर्थंकर नामकर्म का पुण्य तो पूरे संसार में व्याप्त है, यह आपका ऐश्वर्य है, आप श्रेष्ठतम पुरुष, अनन्त, योगीश्वर और ज्ञानस्वरूप हैं ऐसा संत कहते हैं।
नवरतनमल चोरडिय़ा, जेठमल चोरडिय़ा, सुभाष खांटेड़, रमेश गुगलिया और कांताबाई चोरडिय़ा ने चातुर्मास समिति की ओर से तपस्वीयों का सम्मान किया।
कार्यक्रम में कुन्नूर श्रीसंघ के श्रद्धानिष्ठ श्रावक शामिल हुए। 23 सितंबर रविवार को मातृ-पितृ पूजन का कार्यक्रम, 26 से 28 सितंबर को 72 घंटे का अर्हम गर्भ संस्कार शिविर, 30 सितंबर को घर-घर में नवकार कलश स्थापना का कार्यक्रम संपन्न होगा।