वेपेरी स्थित जयवाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा विवेक परम धर्म होता है। विवेक जागृत होने पर साधक के भीतर हिताहित का बोध होने लग जाता है ।
जिन जीवों में विवेक चक्षु नहीं होता , ऐसे लोग आंख होते हुए भी अंधे माने जाते हैं। चार प्रकार के अंधों का वर्णन करते हुए मुनि ने कहा क्रोध में व्यक्ति इतना अंधा बन जाता है कि उसे कुछ भी ध्यान नहीं रहता है।
क्रोध में व्यक्ति स्वयं भी जलता है और दूसरों को भी जलाता है। क्रोध के दुष्परिणाम प्रत्यक्ष अनुभवगम्य होते हैं। क्रोध की दशा में अगर व्यक्ति को समझाने का प्रयास भी किया जाए तो भी वह व्यक्ति समझने के लिए तैयार नहीं हो पाता।
क्रोध के कारण अनेक अनर्थ हो जाते हैं । दूसरे प्रकार का अंधा होता है मोहांध जिसमें जीव की दशा एक शराबी की तरह बेभान हो जाती है। तीसरे प्रकार का अंधा लोभांध व्यक्ति न्याय – नीति, ईमानदारी, प्रामाणिकता को भूलकर अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु कुछ भी करने को तैयार हो जाता है । चौथा कामांध व्यक्ति कामवासना में अंधा बनकर अनेक घिनौने एवं अमानवीय कार्य कर बैठता है।
क्रोध में व्यक्ति की बुद्धि अवरुद्ध हो जाती है, जिसके कारण क्रोध अवस्था में लिए गए निर्णय ज्यादातर गलत साबित होते हैं। क्रोध में कभी निर्णय नहीं लेना चाहिए ।क्रोध के दुष्परिणाम जानने से व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। धर्म सभा का संचालन महिपाल चोरडिया ने किया।