कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की कड़ी में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि ने जैन दिवाकर दरबार में धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि आज आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभुजी स्वामी का मोक्ष कल्याणक है।
चंद्रप्रभुजी को अपने पूर्व भव में धात की खंड के मंगलावती नगरी में पद्म राजा के भव में धर्म प्रेरणा का अच्छा योग मिला था। शहर में साधु संतों का आवागमन होता रहता था, जिससे धर्म की प्रभावना में बढ़ोतरी होती थी। संतों का चतुर्मास किस लिये कराते हैं और प्रवचन क्यों होते हैं। साधु साध्वियों के संतों के प्रवचन का चतुर्मास कराने का उद्देश्य यही होता है कि लोगों के दिल में धर्म की भावना बढे, और आत्मा निकालिस बने समाज में जागृति आये। कुव्यसन व कुरीतियां दूर होवे ऐसी भावना से संत भी भगवान की वाणी सुनाते हैं।
राजा पद्म ने भी भगवान की वाणी सुन करके युगंधर मुनि के पास दीक्षा ली तीर्थंकर गोत्र बांधने के 20 बीस बोल है, उनकी साधना आराधना की और तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया। संथारे के साथ आयुष्य पूर्ण करके अनुतर लोक के जयंत विमान में गये वहां की आयु पूर्ण करके चंद्रपुरी के राजा महासेन व माता लक्ष्मी के यहां पर जन्म लिये, माता को चंद्र को पीने का दोहला ( भावड ) हुआ जिसे राजाने पूर्ण किया इसलिये उनका नाम चंद्रप्रभु रखा।
चंद्रमा के समान वे सुंदर व शीतल थे, समय पर 1000 मनुष्यों के साथ दीक्षा लेकर के साधना करते हुए घाती कर्मों को नष्ट करके केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त किया और धर्म संघ चतुर्विध संघ की स्थापना की। सम्मेदशिखर पर आज के दिन भादवा बदि 7 को सर्व कर्मों का अंत कर मोक्ष पद को प्राप्त किया।
इसी प्रकार सोलवे तीर्थंकर श्री शांतिनाथ भगवान ने भी जीव दया करके संसार में एक आदर्श उपस्थित किया। जीवो की रक्षा करके मरते हुए प्राणियों को बचा करके हम कल्याण कर सकते हैं। कबूतर को बचाने के लिये मेघरथ राजा ने अपने शरीर का मांस काट करके तराजू के पलड़े में रखते गये थे, पर पलड़ा ऊपर नहीं उठ रहा था यह देख करके मेधरथ राजा स्वयं ही पलड़े में बैठ गये थे।
एक ( जीव दया ) कबूतर की जान बचाने के लिये उन्होंने अपने आप को समर्पित करके दिखा दिया कि जीवो पर दया ऐसे की जाती है जिससे उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया और माता अचला के गर्भ में आने पर देश में जो मृगी का रोग फैला हुआ था, उसे गर्भ में रहते हुवे शमन कर दिया था। इसलिये शांतिनाथ नाम रखा था। प्रभु का आज के दिन देव लोक से च्यवन हुआ था, इसलिये आज च्यवन कल्याण कहलाता है।
आज भी प्रभु शांति का नाम श्रद्धा से लेने से सर्व प्रकार के रोग शोक दुख दरिद्रा भूत प्रेत बाधाएँ सब नष्ट होते हैं, श्रद्धा भक्ति से नाम जपने से कष्ट आधि-व्याधि सब नष्ट होते हैं।
इसी कड़ी में आज राष्ट्रसंत कड़वे प्रवचन के नाम से प्रख्यात मुनिजी श्री तरुण सागर जी म सा जिन्होंने 14 वर्ष की अवस्था में वैराग्य धारण किया और 21 वर्ष की अवस्था मुनि बनकर के प्रभु महावीर स्वामी की वाणी का प्रचार प्रसार किया। जन जन के हृदय ( दिल ) में अपना नाम अंकित कर दिया ऐसे संत मुनि प्रवर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुवे वीर प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि आपकी आत्मा को चरम लक्ष्य की प्राप्ति होवे।