चेन्नई : मानवता का शंखनाद करते, जन-जन के मानस को पावन बनाते, लोगों को सद्भावना का पाठ पढ़ाते, नैतिकता की शिक्षा प्रदान करते और नशामुक्त होकर सुन्दर जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करते जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता भगवान महावीर के प्रतिनिधि महातपस्वी अखंड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ अहिंसा यात्रा लेकर भारत की राजधानी नई दिल्ली से 9 नवम्बर 2014 को प्रस्थान किया।
दृढ़ इच्छा शक्ति के धनी और महान संकल्पधारी आचार्यश्री जब गतिमान हुए तो उन्होंने चार वर्षों के भारत के चैदह राज्यों सहित दो विदेशी धरा नेपाल और भूटान को भी माप लिया और उन्हें अपने ज्यातिचरण से पावन बनाया और अपनी मंगलवाणी से लोगों को मानवता का संदेश प्रदान किया। इस दौरान आचार्यश्री ने अनेक प्राकृतिक अनुकूलताओं, प्रतिकूलताओं, विपदाओं, मौसम परिवर्तन को भी समभाव से सहन किया और निरंतर गतिमान रहे।
आचार्यश्री ने इस दौरान अनेकानेक कीर्तिमान की रचना की जो तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया। वह चाहे पहली बार विदेशी धरती पर चतुर्मास का हो, चाहे भूकंप जैसी आपदा से बिना घबराए, अपनी यात्रा को अबाध रूप से गतिमान रखना, हिमालय की ऊंचाइयों पर चढ़ना रहा अथवा गंगा के तटवर्ती इलाकों का भ्रमण रहा हो, गंगा, कोशी, गंडक, तिस्ता, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा जैसी पौराणिक नदियों को पार करना रहा अथवा असम, मेघालय जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों के बीहड़ जंगलों से यात्रा करना। ऐसी अकल्पनीय यात्रा करते-करते दक्षिण की धरा को अपने चरणरज से पावन करने के लिए पहली बार पधारे और वर्तमान में तमिलनाडु राज्य की राजधानी, भारत के तीसरे महानगर चेन्नई के माधावरम में वर्ष 2018 का चतुर्मास सानंद सम्पन्न कर रहे हैं।

वर्तमान में आचार्यश्री अपनी मंगलवाणी से श्रद्धालुओं को ‘ठाणं’ आगम में वर्णित विभिन्न प्रकारों के सूत्रों की अवगति प्रदान कर रहे हैं। आचार्यश्री के श्रीमुख से आगमवाणी का श्रवण कर श्रद्धालु निहाल हो रहे हैं। सोमवार को भी आचार्यश्री ने श्रद्धालुओं को ‘ठाणं’ आगम में वर्णित दूसरे देवलोक के आयुष्य का वर्णन करते हुए कहा कि आदमी के जीवन को भी तीन भागों में बांटा गया है। पहला भाग आठ वर्ष से तीस वर्ष तक का होता है। इस समय में आदमी को अधिक से अधिक ज्ञानार्जन करने का प्रयास करना चाहिए।
इस भाग में आदमी को धार्मिक ज्ञान का अर्जन करने का भी प्रयास करना चाहिए। दूसरा भाग तीस वर्ष से साठ वर्ष तक का होता है। इसमें अपने जीविकोपार्जन के कार्यों के साथ धार्मिक कार्यों में भी समय लगाने का प्रयास करना चाहिए। साठ से आगे के आयुष्य को तीसरा भाग माना जाता है। इसमें आदमी को अपनी आत्मा की ओर विशेष ध्यान देकर धर्म में प्रवृत्त होने का प्रयास करना चाहिए और अपनी सुगति बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। आदमी को भौतिक जीवन से मोड़ लेकर आध्यात्मिक जीवन जीने की ओर प्रस्थान करने का प्रयास करना चाहिए। मुख्य मंगल प्रवचन के पश्चात् आचार्यश्री ‘मुनिपत के व्याख्यान’ क्रम को भी आगे बढ़ाया।
आज भी आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में अनेक तपस्वियों ने अपने आराध्य के श्रीमुख से अपनी-अपनी धारणा के अनुसार अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। इस प्रकार निरंतर तपस्या का क्रम जारी है।