चेन्नई. संसार के अधिकतर लोग ‘डर’ में जीते हैं। हर किसी को कोई न कोई डर सताता है। केवल बच्चे ही नहीं बड़े लोग भी कोई इस लोक के कोई परलोक के कोई अपयश अथवा मृत्यु के भय में जीते हैं। भय का कारण है-भय। आपने किसी को भयभीत किया होगा तो आज वो आपका भय बन रहा है। आपको अभय बनना है तो सब जीवों को अभयदान दें। यह विचार-प्रवचन दिवाकर डॉ. वरुण मुनि ने जैन भवन साहुकारपेट में चल रही भगवान महावीर की जीवन गाथा एवं श्री उत्तराध्ययन सूत्र की वाचना को आगे बढ़ाते हुए व्यक्त किए।
उन्होंने कहा प्रभु महावीर ने श्रीस्थानांग जी ‘सूत्र’ में सात प्रकार के प्रमुख भय फरमाए हैं। भयभीत व्यक्ति जीवन में कभी विकास नहीं कर पाता। संजय नाम का राजा शिकार खेलने जंगल में अपने साथियों के साथ गया। निशाना साधा, तीर छोड़ा एक मृग को वह तीर लगा फिर भी जान बचाने को वह मृग भागा। बाण लगने के कारण उस हिरण के पेट में जख्म हो गया था। उस जख्म से रक्त बह रहा था।
राजा ने उन खून के धब्बों का पीछा किया और पीछा करते- करते वह जब जंगल के बीचों बीच पहुंचा तो देखा – वृक्ष के नीचे एक महामुनि ध्यान अवस्था में बैठे हैं। राजा को समझते देर न लगी। उसने सोचा- हो न हो, यह मृग इस साधु-महात्मा का ही पाला हुआ होगा, जो इसने अपने प्राण इन संतजी के चरण में आकर तजे। जैसे हवा के झोंके से पत्ता कांपता है अब राजा भी वैसे ही भय के मारे कांपने लगा। उसे पक्का विश्वास था कि – ये सन्यासी आंखें खोलेंगे और मुझे शाप देकर भस्म कर देंगे। इधर जैसे ही मुनि का ध्यान पूर्ण हुआ, उन्होंने आंखें खोली सामने का सारा दृश्य देखकर समझ गए मामला क्या है ?
संत ने राजा से कहा- हे राजन! अपनी मौत के डर से तुम कैसे भयभीत होकर कांप रहे हो? इस मासूम प्राणी को मारते हुए तुम्हें जरा भी ख्याल न आया? जैसे तुम चाहते हो कि – मैं तुम्हें अभयदान दूं। वैसे ही तुम भी अन्य जीवों को अभय दान दो। उनकी रक्षा करो। संत की बात राजा के दिल को छू गई और समस्त राजपाट का त्याग कर वे संजय राजर्षि बन गए। आत्म साधना के द्वारा उन्होंने अपने जीवन का कल्याण किया। हम भी अभय होना चाहते हैं तो सब जीवों को अभयदान देने का प्रयास करें।