Share This Post

ज्ञान वाणी

जीव और कर्म के बंध पश्चात् परिणमन का स्वरूप

*क्रमांक — 476*

. *कर्म-दर्शन*

🚥🔹🚥🔹🚥🔹🚥 🔹🚥🔹🚥🔹🚥

*🔹जीव और कर्म के बंध पश्चात् परिणमन का स्वरूप*

*निश्चय नय से तादात्म्य संबंध केवल सजातीय द्रव्यों में ही होता है। दो भिन्न जातीय द्रव्यों का एकात्म संबंध नहीं हो सकता है। यहाँ पर कर्म और जीव ये दो विजातीय होने से इनमें सात्मीकरण भी संभव नहीं है। कर्म पुद्गल चारों ओर से आत्म प्रदेशों को शत्रुवत् घेर लेते हैं। इस प्रकार कर्म के निमित्त स्वरूप चेतन आत्मा अचेतन रूप में व्यवहृत होने लग जाती है। निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि किसी भी उपचार कथन से उसके प्रयोजन मात्र को जान कर आगे प्रगति के लिए निश्चय नय का आश्रय करके ही हमें आत्मा और जीव के अन्तःतत्त्व को जानना अभीष्ट है।*

*निष्कर्षतः जीव और कर्म का अनादिकालीन संबंध होने पर भी न तो कभी जीव कर्मत्व को प्राप्त होता है न कर्म कभी जीवत्व को प्राप्त करता है। आचार्य परमसत्य की ओर इंगित करते हुए लिखते हैं कि इस लोक में छह द्रव्य आपस में घुल-मिलकर अनादिकाल से रहते आए हैं; तथापि उनका आज तक आपस में न कोई परिवर्तन हुआ है, और ना ही भविष्य में होगा।*

*क्रमशः ……….. आगे की पोस्ट से जानने का प्रयास करेंगे गृहीत कर्म पुद्गलों का परिणामों के कारण द्विस्वभावता के बारे में।*

*✒️लिखने में कुछ गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*

विकास जैन।

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar