किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीश्वरजी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने प्रवचन में बताया कि हमारे पास आंखें हैं, इसका सबूत यह है कि हमें दिखता है। हमारे पास मन हैं, जिससे चिंतन मनन कर सकते हैं। इसी तरह कुछ लोग पूछते हैं हमारे पास आत्मा है, उसका क्या प्रमाण है?
हमारे पास आत्मा को देखने का जरिया ही नहीं है। आत्मदर्शन का मार्ग है ध्यानयोग। उन्होंने कहा नमक अकेला होता है तो खारा लगता है, किसी के साथ मिल जाए तो प्यारा लगता है। वैसे ही आदमी का अकेलापन सबको खारा लगेगा। परमात्मा हमारी आत्मा में बसे हुए हैं, आत्मा को जूम करके देखो तो महसूस होगा।
आचार्यश्री ने कहा निज की आत्मा में परमात्मा का दर्शन करने के लिए छ:काय के जीवों की रक्षा करो। सिद्ध भगवंतों का उपकार याद करो कि हमें अव्यवहार से व्यवहार राशि में प्रवेश का काम किया है। सिद्धों ने सर्वप्रथम साधार्मिक भक्ति का व्यवहार किया। अनंतकाल से नीगोद में रही हमारी आत्मा को वहां से बाहर निकाला। साधर्मिक का सच्चा प्यार वह है कि दूसरा साधर्मिक मेरे जैसा ही होना चाहिए। हमारी साधार्मिक भक्ति सबसे पहले सिद्ध भगवंतों ने की। परमात्मा कहते हैं मैं तुझे मेरे जैसा ही बनाना चाहता हूं। जब हम आत्मा को जूम यानी विस्तार करके देखेंगे तो हमें परमात्मा के स्वरूप के दर्शन होंगे।
उन्होंने कहा परमात्मा की पूजा परमात्मा का स्वरुप पाने के लिए की जाती है। हमारा मन हमेशा मोहनीय से भरा रहा है। प्रभु की पूजा इस मोहनीय कर्म को दूर करने के लिए है। प्रभु के समक्ष नैवेद्य, फूल चढाना द्रव्य मोह त्यागने की सुंदर प्रक्रिया है। उन्होंने कहा व्यवहार राशि में भव्य जीव ज्यादा और अभव्य जीव कम होते हैं। अपने पास शक्ति है, संयोजन नहीं। शक्ति का जो प्रयोग होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। दुःखों के दिन आए तब ऐसा सोचना, दुःख के दिनों में ही सुख का पता चलता है।
इससे पूर्व मुनिश्री कृपार्यप्रभ विजयजी ने कहा हमें ऐसा बोलना चाहिए, जो सत्य से परिपूर्ण हो। हमारे आचरण में अठारह पापस्थानक आ जाते हैं। उन्होंने प्राणातिपात यानी हिंसा, मृषावाद और अदत्तादान पापस्थानकों का विवेचन करते हुए कहा हिंसा कर्मबल से बिना माता-पिता का संसार मिलता है। दरिद्र है तो जीवन भर दरिद्र ही रहेगा।
जो वस्तु चाहिए होती है वह नहीं मिलेगी। हमें जीवानोपयोगी वस्तुओं में भी हिंसा होने वाली वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। शब्दों की अशक्यता से भी ज्यादा हिंसा होती है। हिंसा ज्यादा होने से ज्यादा पापबंध होते है। पूर्व भव की सामूहिक हिंसा के कारण सामूहिक मृत्यु आती है। मृषावाद यानी असत्य वचन बोलना। मृषावाद के प्रकार है क्रोध मृषावाद, लोभ मृषावाद, भय मृषावाद और हास्य मृषावाद। अदत्तादान के चार प्रकार स्वामीअदत्त, जीवअदत्त, तीर्थंकरअदत्त और गुरुअदत्त होते हैं।