जो कर्म आत्मा को मोहित करके मूढ़ता उत्पन्न करता है वह मोहनीय कर्म है। जिस प्रकार नशीली वस्तुओं के सेवन से सोचने-विचारने की बुद्धि कुण्ठित हो जाती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म आत्मा की विवेक शक्ति को कुण्ठित करके उसे दुष्कृत्य में प्रवृत्त कराता है।
जैसे मदिरा-पान करने वाला जहाँ-तहाँ गिर जाता है और अपना नियंत्रण खो देता है उसी भाँति आत्मा मोहनीय कर्म के कारण मूढ़ बनकर अपने हिताहित का, सत्य-असत्य का व कल्याण-अकल्याण का भान भूल जाती है। हिताहित को कदाचित् जान-समझ भी लें किन्तु मोहवश आचरण नहीं कर पाती। काम-क्रोध, मद-लोभादि अनेक प्रकार के मनोविकार इसी कर्म के आविष्कार हैं।
आत्मा को संसार में रचा-पचा कर रखने वाला एवं अपने आप को बिलकुल विस्मृत कराने वाला मोहनीय कर्म है। प्रणय सम्बन्ध, एवं प्रेम-लीलाएं भी इसी कर्म के विविध नाटक हैं। यही कारण है इसे सब कर्मों का राजा कहा जाता है।
तीव्र क्रोध, मान, माया और लोभ के कलुषित भाव से तथा देव-गुरू-धर्म की निन्दा करने से इस कर्म का बन्ध होता है। अतः कषाय की तीव्रता को मन्दतम करना ही इसका श्रेष्ठतम उपाय है।
तात्पर्य यह है, कषायों के उदय से कषायों का बन्ध होता है। क्रोध और मान द्वेष के रूप है तो माया और लोभराग के रूप है इसलिए राग-द्वेष से मोहनीय कर्म बँधता है।
आत्मशक्ति प्रबल हो जाए तो इसके प्रभाव को निष्फल किया जा सकता है। स्मरण रहे, किसी भी कषाय का प्रसंग उपस्थित होने पर उससे प्रभावित नहीं होना और मन यदि प्रभावित हो भी जाए तो कम से कम वचन और काया उसमें प्रवाहित न हो ऐसा विवेक रखना ही मोहनीय कर्म को समझने का सार है।