92वीं पुण्यतिथि पर हुए विशेष कार्यक्रम
किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ के तत्वावधान व गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी की निश्रा में योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीश्वरजी की 92वीं पुण्यतिथि पर गुणानुवाद के कार्यक्रम आयोजित हुए। इस मौके पर सामूहिक सामायिक, गुरु पूजन, संघ पूजन आदि आयोजित हुए। आचार्य केशरसूरीश्वरजी के जीवन चरित्र का वर्णन करते हुए आचार्यश्री उदयप्रभसूरीश्वरजी ने कहा अभिव्यक्ति से महत्वपूर्ण अनुभव होता है और अनुभव से महत्वपूर्ण उदाहरण होता है। जिनशासन में अनेक योगी पुरुष हुए अवतरित हुए हैं, जिनमें से एक आचार्य केशरसूरीश्वरजी थे। जिस काल में क्रिया, ज्ञान की महत्ता थी, ऐसे काल में एक महापुरुष ने जन्म लेकर योग, ध्यान की रुचि के अभाव को दूर किया।
जिनशासन में योग शब्द का अर्थ है आत्मा को परमात्मा से जोड़ना। मन- वचन- काया के संयोजन को ऐसी क्रिया में जोड़ना, जिससे जल्दी मोक्ष हो। योग का आयुष्य से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने बताया केशरसूरीश्वरजी के पास तीन शक्तियां थी लेखनशक्ति, प्रवचनशक्ति और ज्ञानशक्ति। तीनों का समन्वय एक ही व्यक्ति में मुश्किल से मिलता है। आत्मशक्ति के बल पर ही उनका समन्वय पाया जा सकता है। उनमें प्रेम, क्षमा, करुणा कूट- कूट कर भरी थी। आत्मकल्याण करते-करते लोककल्याण भूलना नहीं और लोककल्याण करते-करते आत्मकल्याण को छोड़ना नहीं, यह उनके जीवन का उत्तम तत्त्व था। उनकी साधना उत्कृष्ट कोटि की थी। उन्होंने कहा उनके पास साधन नहीं थे, लेकिन साधना का बल था। योगशास्त्र ग्रंथ का सबसे पहले रूपांतरण उन्होंने किया था। उन्होंने योगसाधना, ध्यान-योग और आत्मशुद्धि से संबंधित बीस पुस्तकें लिखी।
आचार्यश्री ने बताया कि मात्र 10 वर्ष की आयु में तीन दिनों के अंतराल में उनके माता-पिता दोनों का वियोग हुआ। उन्होंने कहा जिसे दुःख से दर्द पैदा होता है, वह जघन्य व्यक्ति, जिसे दुःख से विवेक पैदा होता है, वह मध्यम व्यक्ति और जो दुःख से वैराग्य प्रकट करे, वह उत्तम व्यक्ति होता है। दुःख को याद रखो, सुखों को भूल जाओ तो वैराग्य प्रकट होता है। कर्मसत्ता अपना टोटल कैलकुलेशन पक्का रखती है, इसलिए हमें जागृत बनने की ज्यादा जरूरत है। केशरसूरीश्वरजी ने 16 वर्ष की आयु में ही वैराग्य प्रकट कर संयम ग्रहण किया। उन्होंने संयम जीवन के दौरान साधना के लिए गुफा में भी चातुर्मास किये। आचार्य शांति गुरुदेव और वे कल्याण मित्र थे। शांति गुरुदेव ने उनका अंतिम समय जानकर उनको आगाह किया। विक्रम संवत 1987 के भाद्रपद वदी पंचमी की सायंकाल समाधि में अपने प्राण अहमदाबाद के राजनगर में छोड़े। उन्होंने कहा मृत्यु पाने के बाद भी योगी पुरुषों का तेज़ का प्रभाव रहता है।
आचार्यश्री ने कहा भगवान महावीर की परंपरा को आज तक आगे लाने का कार्य आचार्य करते रहे हैं। वर्तमान में इस परंपरा की 78वीं या 79वीं पीढ़ी चल रही है। इस दौरान जैन शासन की परंपरा तीन बार टूटने के कगार पर पहुंची। परंपरा की नींव चतुर्विध संघ है, चतुर्विध संघ की नींव श्रमण संघ है। श्रुत और श्रमण एक साथ चलते हैं। जैसे साधुओं की संख्या घटेगी श्रुत की संख्या भी घटेगी। प्रवचन के दौरान केसरवाड़ी तीर्थ ट्रस्ट मंडल के सदस्यों ने उपस्थित होकर आचार्यश्री के आगामी चातुर्मास की विनंती की।