*स्थल: श्री राजेन्द्र भवन चेन्नई*
🪷 विश्व पूजनीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी महाराज साहब के प्रशिष्यरत्न राष्ट्रसंत, संघ एकता शिल्पी श्रीमद् विजय जयंतसेनसुरीश्वरजी म.सा.के कृपापात्र सुशिष्यरत्न श्रुतप्रभावक मुनिप्रवर श्री डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा. के प्रवचन के अंश
🪔 *विषय अभिधान राजेंद्र कोष भाग 7*
~ धर्म युवावस्था, बलवान अवस्था, और जागृत अवस्था में ही हो सकता है और यह ही श्रेष्ठ अवस्था है।
~ पूर्व की अनंत काल की हमारी चेतना पराधीन यानी जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, कर्म की अवस्था( दशा )में ही पसार हुई थी।
~ मृत्यु कभी भी कोई भी पल आ ही सकती है इसीलिए साधक हर पल जागृत ही रहते हैं।
~ जो साधक गुणवान है, ज्ञानी है, साधना में रथ है और अज्ञान को नाश करके सम्यक् दर्शन पाने वाला है उसकी मृत्यु समाधि में ही होगी।
~ सम्यक् दर्शन का अनुभव यानी राग द्वेष को मूलभूत रूप से कमजोर करना, क्षय करना।
~हमारे इस भव में ही मृत्यु को देखना है या अनंत भव तक की मृत्यु का क्षय करना है, वह दशा ही भाव समाधि है
~ प्रभु महावीर स्वामी ने विश्व के जीवों के हित के लिए बोध दिया की आत्मा का स्वभाव क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, निंदा ऐसा करने का है ही नहीं वह गुणवान हीं है ऐसा मानकर उसका अनुभव करना ही चाहिए।
~ मन बाह्य भावों में इतना जुड़ा और इतना डूब गया कि जिसके कारण वह स्वयं कौन है, कैसा है, ऐसा ना सोच सकता है, ना निर्णय, न अनुभव कर सकता है।
~ प्रभु की आज्ञा के पालन करने के बाद हमारे जीवन में गुणों का प्रगटीकरण होना ही चाहिए।
~ साधना वह सिर्फ साधना नहीं, मेरे जीवन का पूर्ण हिस्सा केवल साधना ही है।
~ पूर्व के महापुरुषों ने केवल साधना नहीं की थी साधना के साथ सिद्धियाँ भी पाई ही थी।
~ प्रभु राजेंद्र सुरीश्वरजी म. स्वयं की अध्यात्म शक्ति की भावना को इतनी श्रेष्ठ दशा में ले गए थे जिसके प्रभाव से देवी देवता सेवा के लिए खींचकर आते थे।
*”जय जिनेंद्र-जय गुरुदेव”*
🏫 *श्री राजेन्द्रसुरीश्वरजी जैन ट्रस्ट, चेन्नई*🇳🇪