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सदाचार व सन्तोष ही सुख का मार्ग है: विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा

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सुंदेशा मुथा जैन भवन में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- मोक्ष के वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञ आत्माएँ अर्थ और काम (धन और पांच इन्द्रियों को मन पसंद पदार्थ ) में सुख की कल्पना कर उनकी प्राप्ति के लिए ही रात और दिन प्रयत्न करती रहती है परंतु दीर्घकालीन प्रयास के बावजूद भी अंत में निराशा और हताशा ही हाथ लगती है।

वास्तव में सच्चा सुख जिनेश्वर भगवंत द्वारा निर्दिष्ट मोक्ष मार्ग की आराधना और साधना में ही है। विश्व के रंगमंच पर बनने वाली अनेक विचित्र घटनाओं से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि भौतिक साधनाओं में सुख की कल्पना एक मात्र भ्रांति ही है। करोड़ो की संपत्ति जिसके पास में है , तथा अपने अभिनय के द्वारा लाखो नवयुवकों को मोहित करने वाली फिल्मी हीरोइन दिव्या भारती चौथी मंजिल से गिरकर आत्महत्या कर देती है।

श्रेष्ठ अभिनय के बदले जिसे इनाम मिलने वाला है, ऐसी अभिनेत्री शोभा गले में साड़ी का फंड डालकर अपनी जीवन लीला को समाप्त कर देती है।….तो कोई अभिनेत्रि पंखे से लटककर अपने जीवन का करण अंत ला देती है। ऐसी एक नहीं अनेक घटनाएं आए दिन अखबारों में देखने -पढ़ने व सुनने को मिलती है।

इन सब आत्महत्याओं के मूल शोध की जाय तो पता लगेगा
कि इन सब आत्महत्याओं का कारण मानसिक -तनाव परस्पर मन – भेद , ईर्ष्या , प्रेम मे असफलता आदि ही देखने को मिलेंगे ।
सचमुच सदाचार व सन्तोष जो सुख का मार्ग है , उस मार्ग की मर्यादाओं के उल्लंघन का ही यह परिणाम है कि व्यक्ति जीवन में एक दम निराश होकर आत्महत्या तक के कदम उठाने के लिए तैयार हो जाता है।


ज्ञानी महापुरुषों ने एक ओर मानव जीवन को दुर्लभ और उस जीवन की प्रत्येक पल को अत्यंत ही कीमती कहा है -जहाँ दुसरी ओर अज्ञान व मोह के अंधकार में भटकती हूई आत्माओं को यही जीवन भारभूत लग जाता है। और व्यक्ति येन केन उपाय से आत्महत्या कर देता है।


शील , सदाचार व धर्म के रक्षण के लिए जीवन का अंत ला देना -बलिदान कहलाता है। ऐसे वीर पुरुषों का नाम तो इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों से अंकित होते है। जबकि तनिक स्वार्थ की आपूर्ति , क्रोधावेश, निष्फलता , मानसिक तनाव असहिष्णुता आदि के कारण जो युवक -युवतियां आत्महत्या कर मौत को भेट देती है। वे तो अपने जीवन व कुल को भी कलंकित ही करते है।


युवक -युवतियों के पास अपूर्व शक्ति है। युवावस्था तो शक्ति का स्त्रोत है। परंतु उस स्त्रोत के ऊपर विवेक का अंकुश न हो तो उस शक्ति का दुरुपयोग हुए बिना नहीं रहेगा । भौतिकता कु चकाचोंध में आज का युवा वर्ग सन्मार्ग से भ्रष्ट बन गया है। इसके परिणाम स्वरुप उसके जीवन का लक्ष्य बदल गया है। फिल्म के पर्दे पर मनमोहक रुप में प्रस्तुत होने वाले हीरों-हीरोइन का जीवन ही उसके जीवन का लक्ष्य बन गया है। परिणाम स्वरुप वह फैशन व व्यसन के जाल में आकंठ फसता जा रहा है। 

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