आयुष्य कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और इसका क्षय होने पर मृत्यु को प्राप्त करता है। इस कर्म का स्वभाव कारागृह के समान बताया है। यह कर्म आत्मा के अविनाशी गुण को रोकता है। जैसे पैर में बेड़ी पड़ जाने पर मनुष्य एक ही स्थान से बन्ध जाता है वैसे ही आयुष्य कर्म आत्मा को अमुक जन्म में निर्धारित अवधि तक रोके रखता है। जब आयुष्य कर्म समाप्ति की ओर होता है तब दुनिया की कोई भी शक्ति उसे रोक नहीं सकती। जन्म, बाल्यत्व, युवकत्व, वृद्धत्व और मृत्यु आदि अवस्थाएं आयुष्य कर्म का ही प्रभाव है।
देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक इन चार गतियों में से किस आत्मा को कितने काल तक अपना जीवन वहाँ बिताना है, इसका निर्णय आयु कर्म करता है। जहाँ जीव भयंकर वेदना भुगतता है उसे नरकायु कहते हैं। तीव्र क्रूर भावों के साथ सदैव हिंसा में आसक्त रहने से, अत्यधिक संचय वृत्ति से, पंचेन्द्रिय प्राणियों का वध करने से तथा मांसाहार का सेवन करने से नरकायु का बन्ध होता है।
धोखा देने से, छल-कपट करने से, झूठ बोलने से तथा झूठा तोल-माप करने से तिर्यंचायु का बन्ध होता है। हृदय में सरलता, नम्रता, दया रखने से और ईर्ष्या रहित जीवन जीने से मनुष्यायु का बन्ध होता है। राग भाव से संयम का पालन करने से, संयम का आंशिक पालन करने से, अज्ञानपूर्वक तप करने से तथा बिना इच्छा के भी कष्ट सहने से देवायु का बन्ध होता है।
आयुष्य कर्म को जानने का सार इतना ही है कि दुर्गति में ले जाने वाले कारणों से बचकर सद्गति का आयुष्य बाँधने हेतु सदैव जागृत रहना चाहिए।