कर्म के कारण आत्मा का एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त करना संसार है। संसार के सब प्राणी समान नहीं है। सबकी बुद्धि, वैभव और क्षमता भिन्न-भिन्न हैं। जिसके पास यह साधन उपलब्ध है उसका मन गर्व से भर जाता है, और जिसके पास साधन नहीं होते उसके मन में हीन भावना पनपती है। इस दोहरी बीमारी की चिकित्सा संसार-अनुप्रेक्षा द्वारा होती है।
यह संसार परिवर्तनशील है। इसमें कोई भी व्यक्ति निरन्तर एक स्थिति में नहीं रहता। जन्म के साथ ही रोग, बुढ़ापा और मृत्यु का दुःख उसे घेरे रहता हैं। कहीं जन्म की खुशियाँ मनाई जाती हैं तो कहीं रोगी का पीड़ित स्वर सुनाई देता है। कहीं विवाह उत्सव रचा जा रहा है तो कहीं चिताएं जल रही हैं। वस्तुतः यह संसार असार और दुःखमय है।
संसार के रंगमंच पर प्राणी विभिन्न पात्रों के साथ पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई आदि के रूप में विविध सम्बन्ध बनाता है। किसी से मैत्री करता है तो किसी से दुश्मनी रखता है किन्तु कुछ समय बाद सब अलग-अलग बिछुड़ जाते हैं। इस प्रकार देव, मनुष्य, नरक और तिर्यंच रूप चार गति में आत्मा भाँति-भाँति के अभिनय करती है। जितने अभिनय होते हैं उतने ही अभिनेता होते हैं और सभी अपने कर्म-सूत्रों से प्रेरित होकर अपना अभिनय प्रस्तुत करते हैं।
संसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है, संसार के विविध परिवर्तनों को जानना और उसका सूक्ष्म दृष्टि से चिन्तन करना। स्थूल दृष्टि से संसार सुखमय और आमोद-प्रमोद का कारण नजर आता है परन्तु सूक्ष्म-दृष्टि से संसार परिवर्तनशील और नानाविध उपाधियों का भण्डार है। इस भाँति संसार की यथार्थता का चिन्तन करता हुआ साधक संसार-सागर को पार कर लेता है।