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संयमी आत्मा अहिंसा महाव्रत का पालन करने के लिए भिक्षा ग्रहण करते हैं- उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी म.सा

संयमी आत्मा अहिंसा महाव्रत का पालन करने के लिए भिक्षा ग्रहण करते हैं- उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी म.सा

किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी महाराज ने प्रवचन में कहा कि अहिंसा पालन के लिए एष्णा समिति अनिवार्य बताई गई है। भिक्षा तीन प्रकार की बताई गई है दैन्यवृत्ति भिक्षा, पौरुष अग्नि भिक्षा और सर्वसंपतकरी भिक्षा। आजीविका निर्वाह करने के लिए दैन्यवृत्ति भिक्षा कही गईं है। आरामी जीवन के कारण हाथ लंबा करके भिक्षा लेने वालों की पौरुष अग्नि भिक्षा कहीं गई है। जिसने संसार के अर्थ, व्यापार व्यवहार का त्याग किया है और आराधना से जीवन को संपूर्ण किया है, उसे सर्वसंपतकरी भिक्षा कही गई है। संयमी आत्मा अहिंसा महाव्रत का पालन करने के लिए भिक्षा ग्रहण करते हैं।

उन्होंने कहा कि दोनों भिक्षा में जमीन आसमान का अंतर है। भिखारी आमंत्रण के बिना आहार लेने आएगा। वह बाहर खड़े खड़े ही कच्चा- पक्का भोजन कुछ भी ले लेगा। जबकि साधु के लिए, संयमी आत्मा के लिए भी घर-घर जाकर भिक्षा लेने का प्रावधान दिया गया है। कुछ गांधी विचार वाले लोग कहते हैं गांधीजी सूत कातकर भी पेट भरते थे। हाथ लंबा करके हमसे नहीं होता है।

उन्होंने कहा कि भिखारी भी यह सीख देकर जाता है कि पूर्वभव में उसने कभी कुछ दिया नहीं, इसलिए अब हाथ लंबा करना पड़ता है। इससे साधुता के प्रति नफरत पैदा होती है। कपिला दासी साधु को भीख देना पाप समझती थी। वह इन्हें समाज के लिए बोझ समझती थी। ऐसी सोच चौथे आरे में भी थी, तो आज ऐसी सोच रखने वाले लोग नहीं होंगे? अहिंसा व्रत का पालन करने के लिए तीर्थंकर खुद भी भिक्षावृत्ति का आचरण करते थे, यही एष्णा समिति है।

महावीर स्वामी का चौथा नाम देवार्य था। वे अपना परिचय भिक्षु के रूप में देते थे। वे यह संदेश देते हैं है कि संसार के सभी जीवों का कल्याण करना है, इसलिए मुझे विहार करना है और भिक्षाचर्या का पालन करना है। सर्वप्रथम जाति स्मरणज्ञान विहार और भिक्षाचर्या के कारण हुई। नहीं तो, सुपात्रदान की शुरुआत ही नहीं हो पाती। सुपात्र दान से साधना की संपूर्णता होती है। साधना के अंश का पुण्य सहायक बनने वाले को भी मिलता है।
उन्होंने कहा कि भिखारी को एक घर से ज्यादा मिल जाने पर दूसरे घर में नहीं जाता है, लेकिन साधु घर घर जाकर थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करते हैं। सुपात्रदान से संयम जीवन व आगे जाकर केवलज्ञान भी प्राप्त होता है। अनेक तीर्थंकरों के चरित्र में सुपात्रदान ग्रहण करने का बताया गया है। साधु के अंदर उपकार की भावना होती है। साधु भिक्षा तभी लेते हैं, जब उनके पूरे विकल्प मिल जाते हैं। साधु दूसरों के हाथ से ही ग्रहण करते हैं। देने वाले दाता के भाव को पढ़कर भिक्षा ग्रहण करना साधु का दायित्व है। यह परीक्षा, विवेक साधु रखता है, भिखारी नहीं। जो गिनकर धर्म करता है, उसे गिनकर ही सीमित में पुण्य मिलता है।

उन्होंने कहा कि याचना को परिषह भी बताया गया है। साधु को मर्यादित भाव के साथ भिक्षा देनी चाहिए। आग्रह भी मर्यादा में होना चाहिए। अतिभक्ति भावना में अधिक नहीं वहोराना चाहिए। साधु द्वारा पात्र में ग्रहण करने के बाद आहार वापस नहीं दिया जाता है। सुपात्रदान के कई दृष्टांत शास्त्रों में मिलते हैं। सुपात्रदान के कारण जीवन में संयम जीवन का अंतराय टूटेगा। सुपात्रदान के कारण तीर्थंकर नाम गोत्र का बंध भी हो सकता है। भिक्षु और भिखारी की तुलना कभी नहीं करनी चाहिए। साधु बनने के बाद पहले अध्ययन में भिक्षा लेने का प्रभाव बताया गया। इसमें अहिंसा महाव्रत का पालन करना बताया गया है।

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