श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन जैन संघ में शनिवार को नवपदजी की ओली की महत्ता व सिद्धपद की महिमा पर विशेष चिंतन व्यक्त करते हुए आचार्य श्री देवेंद्रसागरजी ने कहा की नवपद की आराधना जन्म-जरा-मृत्यु के महाभयंकर रोग को मिटाकर अक्षय सुख प्रदान करती है तथा नवपद की आराधना से ही बाह्य-अभ्यंतर सुख की प्राप्ति होती है।
नवपद की आराधना करके भूतकाल में असंख्य आत्माएं मोक्ष में गई, वर्तमान में जा रही है और भविष्य में जायेगी।उन्होंने कहा कि श्री सिद्धचक्र यंत्र नवपद की उपासना का श्रेष्ठ माध्यम है। इस यंत्र में पंचपरमेष्ठी, चैबीस यक्ष-यक्षिणी, सोलह विद्या-देवियां, अट्ठाइस लब्धियां, नवनिधि, अष्टसिद्धि, अष्टमंगल व नवग्रह का समावेश ज्ञानियों की ओर से किया गया है। नवपद की नवदिवसीय ओली में द्वितीय दिन सिद्धो की आराधना की जाती है । आयुष्य कर्म के क्षय से अक्षय स्थिति गुण व नाम कर्म के क्षय से अरूपी निरंजन गुण उत्पन्न होता है जिसे सिद्ध अवस्था के नाम से जाना जाता है ।
सिद्ध पद प्राप्त करने के इच्छुक साधक जहाँ भी जाता है, घुलमिल कर रहता है। सबसे मैत्रीभाव रखता है, सरलता से जीवनयापन करता है। जो जीव सीधा होता है, वही सिद्धशिला की ओर जाता है, टेढ़ा चलने वाला बीच रास्ते में ही भटक जाता। सीधा चलने वाला अपना घर यानि सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है।
छोटा बालक जैसे माया से रहित होता है, वैसे ही सिद्ध पद के आराधक-साधक का जीवन भी सरल होता है। सिद्ध पद के आराधक के पास दुर्जन, दोषी दुराचारी, हिंसक जैसी प्रकृति के लोग आ भी जाए, तो भी वह उस पर दुर्भाव के भाव नहीं लाता है। सिद्धपद का आराधक आहार के प्रति आसक्त नहीं रहता। आहार संज्ञा पर नियंत्रण पाने के लिए प्रारंभ में स्वाद रहित आयंबिल का तप है। जिनशासन में दूसरे पर्व वर्ष में एक बार आते हैं और नवपद की आराधना वर्ष में दो बार मौसम के परिवर्तन के समय आती है। जिससे तन-मन जीवन की शुद्धि हो जाती है।