यस यस जैन संघ नार्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि
आत्मबधुओ :- भगवान ने निर्देश दिया यदि दान के साथ विवेक जुड़ जाता है तो वह दान भव सागर से तारने वाला बन जाता है नहीं तो वही दान नरक गति और तिर्यंच गति का कारण भी बन जाता है। दान के साथ जब विवेक जुड़ता है तभी दान धर्म की श्रेणी में आता है। विवेक रहित दान पाप से युक्त हो जाता है। विवेक सहित दान करने वाले और लेने वाले दोनों के कर्म की निर्जरा होती है भगवान ने सुपात्र को दान देने का निर्देश दिया है न कि कुपात्र को !
जिसकी सुपात्र पर श्रद्धा, आस्था होगी वही सुपात्र को दान देने की इच्छा रखता है दान देने से कर्म निर्जरा नही होती अपितु भावना भाने से कर्म निर्जरा होती है। आज जैन कुल में जन्म के लेने के बावजूद लोगों का विवेक शून्य होते जा रहे है। भगवान ने सभी की आत्मा को एक समान बताया है किसी भी जीव की हिसां करना महापाप है। इसलिए जिनवाणी में एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी निषेध किया है।
जिसकी धर्म के प्रति श्रद्धा, कुजीवों के प्रति अनुकम्पा और गुरु के प्रति विनय भाव नही तो कैसे सुपात्र दान देने की भावना भायेगा। जो कार्य नही करने करने चाहिए जैसे चींटी मार को मारना, नान वेज होटल में जाना ऐसा करते है तो घर के बाहर जैन का चिन्ह, नाम के आगे जैन लगाने से क्या फायदा। जब तक जैनत्व आचरण में नही आयेगा हम सही मायने में जैन नही कहला सकते। जो विधि जिनेश्वर भगवन्तों ने प्ररुपित की है उसका पालन करना चाहिए जिससे हम तथा हमारी आने वाली पीढ़ी सुरक्षित रह सके। माता पिता का प्रथम कर्तव्य है कि अपने बच्चो को धर्म की शिक्षा दे और स्वयं भी पालन करे।