संसार का जो स्वरूप बताया है. यह कोरी कल्पना नहीं, पूर्णतया सत्य है। हम सदा देखते हैं कि आज जो व्यक्ति लक्ष्मी के प्राप्त होने पर पुत्रादि के विवाह अथवा अन्य किसी शुभ संयोग के कारण फूला नहीं समाता और कई प्रकार से खुशियां मनाता है, वही कल घन पर डाका पड़ जाने पर पुत्र, पत्नी या अन्य किसी स्वजन की मृत्यु के कारण अथवा किसी आकस्मिक विपत्ति के कारण फूट-फूट कर रोता हुआ देखा जाता है। यानी सुख और दुःख समुद्र में आने वाले ज्वार भाटे के समान आते-जाते देखे जाते हैं।
इस संसाररूपी माया नगरी की यही रीति है कि यहां कभी जीव कर्मों से जीतता है और कभी हार जाता है। इनके हृदयरूपी अमृत में शोक का विष भी घुला हुआ रहता है जो अपना दांव लगते ही असर दिखाता है।
जीव जब देवता और मनुष्य संबंधी समस्त काम-भोगों से विरक्त हो जाता है, तब बाह्य और आन्तरिक सभी संयोग त्याग देता है। माता-पिता, बंधु, पुत्र-पत्नी तथा महज मकान व धन-संपत्ति आदि बाहर के पदार्थों का संयोग बाह्य संयोग कहलाता है और राग-द्वेष आदि मोह व कषायों का संयोग आभ्यंतर संयोग कहलाता है।
जब मानव बाह्य और आभ्यंतर संयोगों का त्याग कर देता है तो पूर्ण संयमी बन जाता है, सेवा धर्म का अनुष्ठान करता है और कर्मरज को दूर करताहुआ केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त करता है।
अभिप्राय केवल बाहर के पौद्गलिक पदार्थों से ही नहीं है अपितु सातावेदनीय कर्मों से भी है। सातावेदनीय कर्म भी एक तरह से पर-वस्तु ही हैं, क्योंकि वे आत्मस्वरूप नहीं है। पराश्रित और अस्थायी है, अतः उनसे प्राप्त होने वाला सुख सच्चा सुख नहीं है। इन सातावेदनीय कर्मों का उदय भी आज है तो कल नहीं भी हो सकता। इसी तरह अधिक बरसात होने के कारण राई का पौधा, कान्दा और गन्ना समाप्त हो जाता है और नहीं पड़ने पर पकने से रह जाते हैं।
इसी तरह हम देखते ही हैं कि संसारी जीवों को सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख यानी साता के बाद असाता और असाता के पश्चात् साता का अनुभव होता रहता है।