Share This Post

Featured News / Featured Slider / ज्ञान वाणी

मनुष्य का स्वभाव अध्यात्म है अंध भौतिकता नहीं: देवेंद्रसागरसूरि

मनुष्य का स्वभाव अध्यात्म है अंध भौतिकता नहीं: देवेंद्रसागरसूरि

आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन जैन संघ में प्रवचन देते हुए कहा कि इस दुनिया में धर्म को लेकर जितनी बहस हुई है, उतनी शायद ही किसी और चीज पर हुई होगी। इसके पक्ष और विपक्ष बनते रहे हैं।

आज तो और भी, सारी समस्याओं के लिए धर्म को ही दोषी ठहराया जा रहा है। लेकिन यह एक अजीब सी बात है कि धर्म को किसी ने भी सही अर्थों में नहीं लिया। उलटे उसे टकराव का एक स्थायी मुद्दा बना दिया गया है। सबसे विषम स्थिति तो यह है कि टकराव को धर्म से धर्म तक ले जाया गया है जबकि धर्म का संबंध मानव-जीवन के आधारभूत नियमों से है। वे आगे बोले की जीवन और जगत के अंतर्संबंधों को समझने की कोशिश में मनुष्य ने धर्म को पाया है। हरेक ऋषि मुनियों ने माना है कि संपूर्णतः स्वीकार न कर पाने पर भी यथासंभव जीवन में धर्म को धारण कर चलना चाहिए ताकि वह हमारे जीवन को धारण करता रहे।

इस दृष्टि से कहा है, ‘धर्म को स्वल्प अंश में भी धारण करना महान भयों से बचाता है। भगवान महावीर ने धर्म को हमारा स्वभाव माना है – वस्तु मात्र का स्वभाव। हर चीज, चाहे वह जीवित प्राणी हो या निर्जीव पदार्थ, अपने स्वभाव से प्रतिबद्ध है। स्वभाव से कटकर वह अपनी सत्ता से कट जाती है। हम भूल जाते हैं कि हमारा स्वभाव प्रकाश है, अंधकार नहीं। प्रेम है, अहंकार नहीं। एकता है, अनेकता नहीं। अभिन्नता है, भिन्नता नहीं। साहस है, कायरता नहीं। हमारा स्वभाव अध्यात्म है, अंध भौतिकता नहीं। स्वभाव से हम जितनी दूर जाते हैं, उतना ही अपने आप से भी दूर चले जाते हैं और स्वयं ही अपने अस्तित्व के लिए खतरा बन जाते हैं।

इसलिए यह जरूरी है कि हम अपने स्वभाव के अधिक से अधिक निकट रहें। लेकिन हम विभाव से इतने ग्रस्त हो चुके हैं कि हमारा स्वभाव, जो हमारे लिए सहज साध्य होना चाहिए, धारण करना कठिन हो गया है। वैसे यह सच है कि कालांतर में धर्म को संप्रदायों ने अपनी जंजीरों से जकड़ लिया। वह जीवन को धारण करने वाली सत्ता न रहकर पूजा-उपासना की विविध विधियों तक ही सीमित हो गया। धार्मिक चेतना का सामाजिक जीवन से कटाव होने पर नैतिक मूल्यों का आधार नहीं मिला। उन मूल्यों की उपेक्षा भी होने लगी।

समय आ गया है कि हम धर्म को सांप्रदायिकता से मुक्त कर सच्चे अर्थों में अंगीकार करें ताकि हमारी आंतरिक अकिंचनता और उससे उत्पन्न अवसाद तो दूर हो ही, हमारा आत्मिक निर्माण भी हो सके।

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar