ए यम के यम स्थानक नार्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने कहा भगवान ने मद का निषेध किया है। आठ प्रकार के मद जैसे जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य आदि नही करने चाहिए। मद का उल्टा दम होता है। अर्हंत पद की प्राप्ति के लिए मद का मर्दन करना आवश्यक है।
जो सरल है, विनयी है उसमें ही गुणों का आगमन होता है। विनय को ही इसलिए धर्म का मूल कहते है । अहंकारी व्यक्ति किसी का भला नही कर सकता । मद का अर्थ पागलों की तरह व्यवहार करने वाला, विनाश करने वाला अहंकारी किसी की बात नही सुनता । भगवान कहते है अहंकारी व्यक्ति के निरन्तर कर्म बन्ध होता रहता है। इसलिए भगवान कहते है अहंकार का त्याग करो जिससे स्वयं में गुणों का समावेश हो सके।
जो झुकता है उसे तोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती । जो नही झुकता उसे तोड़कर हटा दिया जाता है। भगवान कहते हैं कि यदि किसी का भला न कर सको तो कोई बात नही पर बुरा करने की प्रवृत्ति के बारे में सोचना भी नही चाहिए। जब मन में पश्चाताप आ जाता है तो हृदय कोमल हो जाता है मलिनता दूर हो जाती है इसलिए ज्ञानी जन कहते हैं यदि गलती हो भी जाये तो पश्चाताप अवश्य कर लेना चाहिए और क्षमा याचना करनी चाहिए। यदि ऐसा कर लिए तो अलग से प्रतिक्रमण करने की आवश्यकता नहीं होती।
जिसने अपनी गलती को स्वीकार कर लिया है वो आदर-सम्मान का पात्र होता है न कि दण्ड के । यदि बीज मिट्टी को समर्पित न हो तो उसका वंश आगे नहीं बढ़ेगा । समर्पित जीव पाच पदों में से सिद्ध पद को प्राप्त करता है। जो साधक जिनशासन में पुर्ण समर्पित हो जाता है तो सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है। कषायवान व्यक्ति गैस के सिलेंडर के समान होता है उसके साथ सावधानी पूर्ण व्यवहार करना चाहिए जिससे कषाय की अग्नि और न भडके । कषायी व्यक्ति के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार कर उसे भी वश में किया जा सकता है।