चेन्नई. एएमकेएम में विराजित साध्वी कंचनकुंवर व साध्वी डॉ.सुप्रभा ‘सुधाÓ के सानिध्य में साध्वी डॉ.हेमप्रभा ‘हिमांशुÓ ने मंगलमय भगवान महावीर की अंतिम देशना उत्तराध्ययन सूत्र का मूल वाचन कराया और उपरांत 19वें से 21वें विवेचन करते हुए कहा कि प्रभु म्रगापुत्र माता-पिता से संयम पथ की स्वीकृति लेने जाता है जहां उसे साधना मार्ग की दुष्करता का बोध कराया जाता है।
म्रगापुत्र प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं कि इन दु:खों को एक नहीं अनेकों बार मैं सह चुका हंू। मेरी आत्मा अनेकों बार नरक के भयंकर दुखों को भोग चुकी है। उनके सामने तो संयम पथ के कष्ट कुछ भी नहीं है। साधुचर्या के कष्ट तो उन दुखों के सामने बिन्दुमात्र और सुख जैसे हैं। नरक की वेदनाएं तीन प्रकार की बताई है- क्षेत्र वेदना, परमधामी देवों द्वारा वेदना और नारकी के जीवों द्वारा वेदना।
वहां का आयुष्य बीच में नहीं टूटता, जितना होता है उतना भोगना ही पड़ता है। अनन्त गरमी, क्षुधा, पिपासा, शीत, दाह, ज्वर, खाज आदि रोग होते हैं। देवों द्वारा नारकी के जीवों को उनके पापों को याद दिला-दिलाकर वेदनाएं दी जाती है। इस प्रकार कर्मों में चिंतन करें कि हमने ऐसी वेदनाएं नरक में कितनी ही बार भोगी है तो साधक जीवन के कष्ट व्यक्ति को सुख ही प्रतीत होते हैं।
म्रगापुत्र कहते हैं ऐसी वेदनाएं मैंने भोगी और देखी हैं, मुझे पांच महाव्रत प्रिय है। वह संयम की अनुमति प्राप्त कर सर्प की कंचुली के समान स्त्री, पुत्र, धन, ज्ञातीजनों को छोड़ संयम पर बढ़ते हैं। बारह प्रकार की तपश्चर्याएं धारण कर ममत्व रहित, त्यागी और समभाव रखते हुए स यक आराधना से समस्त कर्म तोड़कर सिद्ध गति प्राप्त करते हैं।
बीसवें अध्याय में अनाथीमुनि और राजा श्रेणिक का वर्णन आया किया गया है। जिसमें श्रेणिक के पूछने पर उन्हें अनाथ और सनाथ का अन्तर तथा स्वयं के नाथ बनने और दीक्षा लेने की घटना बताते हैं। जो स्वयं का नाथ नहीं है वह किसी अन्य का नाथ बनने के योग्य नहीं होता। स्वयं की आत्मा का स्वामी छह काय जीव त्रस, स्थावर प्राणियों का रक्षक बनने से होता है।
आत्मा ही वैतरणी, कामधेनु और कल्पवृक्ष है। सुखों और दुखों की कर्ता व भोक्ता, स्वयं का मित्र और शत्रु भी है। जो साधक संयम के अनुसार आचरण नहीं करता वह दीक्षा लेने के बाद भी अनाथ है। इस अध्ययन में साधुओं की करने योग्य चर्या बताई है। अनाथीमुनि से सत्य और नाथ की परिभाषा जानकार श्रेणिक के मन में क्षायिक समकित उत्पन्न होता है और मुनि के चरणों में नतमस्तक होता है।
इक्कीसवें अध्याय में समुद्रपाल झरोखे में देखते हैं कि चोर को बंधनों में जकड़कर सिपाही ले जा रहे हैं और उनके मन में चिंतन चलता है कि अपराध कर्मों के कारण आत्मा भी इसी प्रकार जकड़ी जाएगी और दंड भोगना पड़ता है। जीव जब तक पाप करेगा बंधनों में बंधता रहेगा। बंधनों से बचना है तो संयम पथगामी होना है। वे सबकुछ छोड़कर संयम ग्रहण करते हैं।
तीर्थंकर प्रभु ने समय-समय पर जगह-जगह पर साधुचर्या की चर्चा की है। 21वें अध्ययन में भी साधुओं के कारणीय कार्यों की चर्चा की है।
धर्मसभा में उपस्थिति सभी जनों ने चिन्मयसागरजी महाराज को श्रद्धासुमन अर्पित किए। ईरोड़ सहित अनेकों स्थानों से श्रद्धालु उपस्थित रहे। दोपहर में बड़ी साधु वंदना पर परीक्षा हुई।
श्री मधुकर उमराव अर्चना चातुर्मास समिति द्वारा दो दिवसीय निशुल्क एक्युपंचर चिकित्सा शिविर का आयोजन किया गया। शिविर का शुभारंभ साध्वीवंृद के सानिध्य में किया गया, जिसमें बड़ी सं या में लोगों ने स्वास्थ्य लाभ लिया। प्रात: पुच्छिशुणं स पुट साधना में भाग लेनेवालों के लिए ड्रा निकाला गया।
२० अक्टूबर को प्रात: वर्धमान जीवदया समिति द्वारा अर्चना सुशिष्यामंडल के सानिध्य में साधर्मिकों को अनाज वितरण किया जाएगा। एक्युपंचर चिकित्सा शिविर का समापन और उड़ान टीम द्वारा आयोजित पुच्छीशुणं प्रतियोगिता के पुरस्कार प्रदान किए जाएंगे। धर्मसभा में अनेकों श्रद्धालुओं ने उपवास, आयंबिल आदि तपस्याओं के पच्चखान लिए।