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परमात्म वाणी पर घनीभूत हो श्रद्धा : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

परमात्म वाणी पर घनीभूत हो श्रद्धा : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

अनुमोदनीय घटनाओं का बार बार स्मरण करने की दी प्रेरणा

 Sagevaani.Com @चेन्नई; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के तीसरे अध्याय की गाथा का विवेचन करते हुए कहा कि संसार के साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं की दृढ़ता, उनके चारित्र, उनकी क्रियाओं के बार बार दर्शन करके, जो हमारे भीतर में अनुमोदना के भाव प्रकट होते है, उनसे हो सकता है कितने जन्मों, कितने कर्मों के बंधन को काट सकता है। अतः अनुमोदनीय क्रियाओं के दर्शन, चिन्तन पुनः पुनः करने चाहिए। लेकिन उन घटनाओं या क्रियाओं का चिन्तन कभी मत करो जिससे कर्मों का बंधन होता है। हमारे जीवन में अनुमोदनीय और निन्दनीय दोनों घटनाएं सामने आती हैं। एक ही व्यक्ति जिसने पुर्व में कोई निन्दनीय कार्य किया था, बाद में मासखमण कर अनुमोदनीय कार्य करता है, हमें उसके अनुमोदनीय कार्य की अनुमोदना ही करनी चाहिए।

◆ श्रवण योग का परिणाम श्रद्धा है

आचार्य प्रवर धर्म परिषद् को सम्बोधित करते हुए कहा कि पावापुरी में द्रव्य से अंधेरा था लेकिन भाव से रोशनी फैली हुई थी। कार्तिक वदी 14 का वातावरण, परमात्मा महावीर का समवसरण, अखण्ड देशना, उत्तराध्यन के 36 अध्ययनों के द्वारा जीवन को सार्थक करने के उपाय, मोक्ष प्राप्ति के उपाय, हमारे जीवन से दु:ख कैसे समाप्त हो, हमारे रोम रोम में प्रसन्नता कैसे व्याप्त हो, धर्म कैसे व्याप्त हो, धर्म का परिणाम कैसे प्राप्त हो। यह देशना ऐसी चल रही थी कि सभी को लग रहा था कि मेरे अन्तर के प्रश्नों का समाधान मिल रहा है। दुलर्भ चार चीजें- मनुष्य भव, परमात्मा की वाणी का श्रवण, उस पर श्रद्धा करना और उस पर आचरण। वैसे वाणी तो देव भव में भी सुन सकते है, श्रवण क्रिया और श्रवण कला भी हो सकती है, लेकिन श्रवण योग नहीं हो सकता, वह मात्र और मात्र मनुष्य भव में ही हो सकता है। श्रवण योग का परिणाम श्रद्धा है।

◆ स्वार्थ सौदे से नहीं अपितु अखण्डित हो श्रद्धा

गुरुवर ने आगे कहा कि हमारी श्रद्धा स्वार्थ के सौदे के साथ नहीं अपितु कैसी भी परिस्थिती, वातावरण, घटनाएं घटित हो लेकिन मेरी श्रद्धा किसी भी रुप में खण्डित नहीं हो सकती, उसी का नाम श्रद्धा है। एक शब्द में व्याख्या करे तो जो दिखाई देता है उसका त्याग करना, श्रद्धा है। साधु घर-बार, सम्पदा को छोड़ चारित्र ग्रहण करता है, तो उसका मूल लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति रहता है, निरतीचार चारित्र पाल कर आत्मा के मूल स्वरूप की पहचान करना ही यह लक्ष्य रहता है। इसी मार्ग पर चल कर ही उस राह की ओर पहुंचा जा सकता है।

◆ सूलषा श्राविका की तरह हो श्रद्धावान

अम्बड़ सन्यासी की घटना से प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए आचार्य प्रवर ने कहा कि हमारी भी श्रद्धा सूलषा श्राविका की तरह घनीभूत होनी चाहिए। आचार्य भगवंत ने अपने संयम जीवन के प्रथम वर्ष की घटना बताते हुए कहा कि मेरी गुरुवर के प्रति श्रद्धा से ही मैं गुरु आज्ञा से पर्यूषण पर्व पर प्रवचन दे सका। अहमदाबाद के श्रावक नवीन भाई की घटना से प्रेरणा दी कि विपरीत परिस्थितियां, दु:ख में भी हमारी प्रसन्नता खण्डित नहीं हो, तो समझना चाहिए कि हमारी श्रद्धा मजबूत है, घनीभूत है। धर्म का परिणाम है अभाव में भी सहभाव में रहना।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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