*अंतिम क्रमांक!*
*क्रमांक — 478*
. *कर्म-दर्शन*
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*🔹निर्जरा के पश्चात् कर्म का स्वरूप*
*👉 यह एक स्वाभाविक प्रश्न है कि निर्जरा के पश्चात् ये कर्म चतुःस्पर्शी ही रहते हैं अथवा अष्टस्पर्शी भी हो सकते हैं? उत्तरस्वरूप निर्जरण के पश्चात् ये साधारण पुद्गल के रूप में भी रह सकते हैं और चतुःस्पर्शी रह कर भाषा, मन आदि में भी प्रयुक्त हो सकते हैं। आहारक, वैक्रिय, तैजस आदि अष्टस्पर्शी पुद्गल में भी परिवर्तित हो सकते हैं और वे द्विस्पर्शी परमाणु भी बन सकते हैं। पुनः कार्मणवर्गणा में भी परिवर्तित हो सकते हैं। अतः जीव से छूटने के पश्चात् कर्म स्वतन्त्र होकर पुद्गल की किसी भी वर्गणा में परिवर्तित हो सकता है।*
*भगवान् महावीर ने कर्म-योग और कर्म-त्याग दोनों का समन्वित मार्ग निरूपित किया था। उनकी साधना पद्धति का प्रमुख अंग है- संवर (कर्म का निरोध)। किन्तु वह प्रथम चरण में सम्भव नहीं है। पहले कर्म का शोधन (निर्जरा) होता है, फिर कर्म का निरोध होता है। पूर्ण-कर्म निरोध की स्थिति मुक्त होने के कुछ ही क्षणों पूर्व प्राप्त होती है। क्रिया में जैसे-जैसे आसक्ति और कषाय अल्प होते जाते हैं; वैसे-वैसे कर्म का शोधन होता चला जाता है। आयारो में कहा गया है कि कर्म समारम्भ-परिज्ञा के द्वारा कर्म का शोधन और निरोध- दोनों अभिहित हैं।*
*क्रमशः ………..*
*✒️लिखने में कुछ गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
*विकास जैन!*