विश्व के समस्त प्राणियों की एकमात्र यही कामना है कि मुझे सुख मिल जाये और मेरे जीवन के तमाम दुःख टल जाये। सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य अनेक प्रकार की प्रवृत्ति करता है, नानाविधि प्रयास करता है किन्तु अफसोस यह है कि हर प्रवृत्ति और प्रयास उसे दुःख के महागर्त में डुबो देता है इसीलिए दुनिया का एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो दुःखी न हो। यह संसार विचित्रता, विविधता और विषमता से भरा हुआ है। ऐसे संसार में जीते हुए हर कदम पर दुःख तो होंगे ही परन्तु आते हुए दुःखों को हम सुख में बदलें, यही हमारी विशेषता है।
दुःख को रोकना मनुष्य के बस की बात नहीं है किन्तु आये हुए दुःखों को सुख में बदलना उसके हाथ में है। ज्ञानियों का कथन है कि दुःखों के बीच यदि शांति से जीना हो तो अपनी दृष्टि को बदल लो क्योंकि दृष्टि से ही सुख-दुःख का संवेदन होता है। यदि कोई दुःख का संवेदन करे तो उसे अवश्य दुःख होगा और न करे तो नहीं होगा। अगर हमने अपने को दुःखी माना तो हम दुःखी होते चले जाएँगे और सुखी माना तो सुखी होंगे। दुःख और सुख का संवेदन होना हमारे संवेदन केन्द्र पर निर्भर करता है।
हम सोचते हैं कि सुखी तो हम तब होंगे जब सुख की कोई घटना घटेगी, कोई लॉटरी खुलेगी तब सुखी हो जाएँगे। जीवन दुःख नहीं है, जीवन को देखने के ढंग में दुःख है। हम दुःख को कैसे देखते हैं, कहाँ से देखते हैं, किस दृष्टिकोण बिन्दु से नापते हैं, इस पर सब निर्भर करता है। आप्त पुरुषों का कथन है – ‘इन्कार में दुःख और स्वीकार में सुख।’ दुःख का इन्कार मत करो, उसका स्वीकार करना सीखो क्योंकि इन्कार में दुःख है और स्वीकार में सुख है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह दुःख का तिरस्कार या प्रतिकार नहीं करे अपितु उसका स्वीकार करना सीखे। आज तक की हमारी जीवन शैली दुःखों से डरने की, बचने की, भागने की और उसे छिपाने की रही है।
यदि हम दुःख का स्वीकार करना चाहते हैं तो हमें दुःख को देखने का Angle बदलना होगा। ऐसा विधेयात्मक चिन्तन करना होगा कि दुःख मेरे जीवन-विकास का उपयोगी तत्व है जिससे मेरे व्यक्तित्व का विकास होता है। दुःख मेरे द्वारा बोये गये बीज का ही फल है अतः उसका मुझे मेहमान की तरह स्वागत और स्वीकार करना है। जब दुःख के बीज मैंने ही बोये हैं तो अब फसल तैयार होने पर मुझे नाराज क्यों होना चाहिए? जिस दिन हम अपने हृदय की दीवार पर दुःख रूपी मेहमान के लिए Welcome का Board लगा देंगे तभी हृदय का भार हल्का हो सकेगा।