नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने फरमाया कि दान को धर्म कहा गया है। भगवान ने जिस दान की प्ररूपणा की है वह दान आत्मा पर लगे आठ कर्मो से मुक्ति दिलाने वाला है संसार भ्रमण मिटाने वाला है। धर्म ‘मंगल’ करता है तारणहार होता है। संयम की आराधना जीव कर पायें नही कर पाये पर विवेकपूर्ण दान देने में कोई कठिनाई नहीं होती।
जीव दान की भावना भाते भाते दान देते -2 कैवल्य को प्राप्त कर सकता है। दान देने से तीव्र अशुभ कर्म भी शुभ में परिवर्तित हो जाते हैं। इसलिए दान को समझ इसका व्यवस्थित ढंग से पालन करे। निर्दोष, एषणीय, कल्पनीय दान की भावना भाना चाहिए। अशुभ कर्मो का क्षय करने में धर्म ही एक मात्र सहायक होता है। क्योंकि जन्मदाता भी उस समय साथ नहीं देते।
सात जन्मों तक साथ देने वाले जीवनसाथी भी उस समय मुँह फेर लेते है पुण्योदय के समय साथ देने वाले भी मिल जाते है और आगे का मार्ग भी प्रशस्त हो जाता है। इस संसार में सबसे सच्चा मित्र धर्म ही होता है ज़ो कैसी भी परिस्थिति हो साथ में रहता है। मन से जो नहीं हारता वो सदैव सफल होता है। मन से मजबूत हो जो संकल्प करता है उसकी इच्छा अवश्य पूर्ण होती है ऐसा ज्ञानीजन कहते है।