*क्रमांक — 472*
. *कर्म-दर्शन*
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*🔹जीव और कर्म के बंध पश्चात् परिणमन का स्वरूप*
*👉 आगम ग्रंथों एवं परवर्ती विभिन्न आचार्यों द्वारा जीव और कर्म के बंध काल में, दोनों के विशिष्ट प्रकार के परिणमन को भिन्न-भिन्न उपमाओं से उपमित किया गया है।*
*1. आवेष्टन – परिवेष्टन — भगवती में भगवान् महावीर कहते हैं कि जीव के एक प्रदेश को ज्ञानावरणीय आदि कर्म समूह के अनन्त-अनन्त अविभाग-प्रतिच्छेद आवृत्त करते हैं। आत्मप्रदेश के ढक्कन स्वरूप बन कर ये कर्म उसे चारों ओर से लपेटते हुए घेर लेते हैं। उत्तराध्ययन की शान्त्याचार्य वृत्ति में लिखा है कि एक-एक आत्मप्रदेश अनन्तानन्त कर्म पुगलों से आवेष्टित-परिवेष्टित हैं।*
*2. जल में छिद्रित-नौकावत् — जल में अनेकानेक छिद्रों वाली नौका जब उन आश्रवद्वारों के द्वारा जल से परिपूर्ण भरती हुई जल-जलाकार हो जाती है, अर्थात् नौका जलमय हो जाती है। उसी प्रकार जीव कर्मों से अन्योन्य-स्पृष्ट हो जाता है।’ इसी प्रकार समयसार में जैसे जल में आच्छादित सेवाल की मलिनता जल को भी पूर्ण रूप से ढक कर मलिन सेवालवत् दिखलाती है वैसे ही जीव कर्मों से आच्छादित होकर अशुद्धता को प्राप्त करता है।*
*क्रमशः ……….. आगे की पोस्ट से जानने का प्रयास करेंगे जीव और कर्म के बंध पश्चात् परिणमन का स्वरूप के बारे में।*
*✒️लिखने में कुछ गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।